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________________ द्वितीयो लम्बः । हेयोपादेयविज्ञानं नो वेदव्यर्थः श्रमः श्रुतौ । किं व्रीहिखण्डनायासैस्तण्डुलानामसंभवे ॥४४॥ ५४ अन्वयार्थ :- ( चेत् ) यदि ( हेयोपादेय विज्ञानं नो ) हेय वा उपादेयका ज्ञान नहीं है (तर्हि) तो ( श्रुतौ ) शास्त्र में (श्रमः) परिश्रम करना (व्यर्थः) व्यर्थ है क्योंकि ( तण्डुलानां असंभवे ) चावलोंके नहीं निकलने पर (व्रीहिखण्डनायासैः किं ) धान्यके कूटने से क्या फायदा ? अर्थात् कुछ भी फायदा नहीं है ॥ ४४ ॥ तत्त्वज्ञानं च मोघं स्यात्तद्विरुडप्रवर्तिनाम् । पाणौ कृतेन दीपेन किं कूपे पततां फलम् ॥ ४५ ॥ अन्वयार्थः - ( तद्विरुद्धप्रवर्तिनां ) शास्त्र वा तत्वज्ञान के विरुद्ध प्रवृत्ति करनेवाले पुरुषोंका ( तत्वज्ञानं च ) तत्वज्ञान भी (मोघं स्यात् ) वृथा है । (कृपे पततां ) कुएं में गिरते हुए पुरुषको (पाणौ कृतेन दीपेन) हाथमें रक्खे हुये दीपकसे (किं फलं) क्या फल है ? अर्थात् कुछ भी फल नहीं है ॥ ४५ ॥ तत्वज्ञानानुकूलं तदनुष्ठातुं त्वमर्हसि । मुषितं धीधनं नस्याद्यथा मोहादिदस्युभिः ॥४३॥ अन्वयार्थः -- (तत्तस्मात् ) इसलिये (त्वं) तुम (तत्वज्ञानानुकूलं) तत्वज्ञानके अनुकूल (अनुष्ठातुं ) प्रवृत्ति करनेके लिये (अर्हसि ) ग्य हो ( यथा) जिससे ( मोहादिदस्युभिः ) मोहादिक लुटेरोंसे तुम्हारा (धीधनं ) बुद्धिरूपी धन ( मुषितं न स्यात्) चुराया नहीं जावे ॥ ४६ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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