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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । स्त्रीमुखेन कृतद्वारान्स्वपथोत्सुकमानसान् । दुर्जनाहीञ्जहीहि त्वं ते हि सर्व कषाः खलाः॥४७॥ अन्वयार्थः-और ( त्वं ) तुम ( स्त्रीमुखेन कृतद्वारान्) स्त्रियोंके जरियोंसे किया है प्रवेश जिन्होंने और ( स्वपथोत्सुक मानसान् ) अपने खोटे मार्ग पर चलनेके लिये उत्कंठित है मन निनका ऐसे (दुर्जनाहीन् ) दुर्जन रूपी भयंकर सोको (जहीहि) दूरसे ही छोड़ दो अर्थात् उनके साथ सम्बन्ध मत कर (हि) निश्चयसे (ते खलाः) वे दुर्नन पुरुष (सर्वकषाः) सम्पूर्ण पुरुषोंको दुःख देनेवाले होते हैं ।। ४७ ।। स्पृष्टानामहिभिर्नश्यद्गात्रं खल जनेन तु । वंशवैभववैदुष्यक्षान्तिकादिकं क्षणात् ॥४८॥ ____ अन्वयार्थः- (अहिभिः स्पृष्टानां) सोसे डसे हुए पुरुषोंका केवल ( गात्रं नश्येत् ) शरीर ही नष्ट होता है ( तु ) किन्तु (खलजनेन स्टष्टानां) दुर्जन पुरुषोंका सम्बन्ध करनेवाले पुरुषोंका ( वंशवैभववैदुष्यक्षान्तिकीर्त्यादिकं ) कुल, सम्पत्ति, पाण्डित्य, क्षमा और कीर्त्यादिक गुण (क्षणात् ) उसी क्षणसे ( नश्येत ) नाशको प्राप्त हो जाते हैं । ४८ ।।. .. खलः कुर्यात्खलं लोकमन्यमन्यो न कंचन । न हि शक्यं पदार्थानां भावनं च विनाशवत् ॥४९॥ ___अन्वयार्थः----(खलः) दुर्जन पुरुष (लोकं) लोकको (खलं) दुर्जन (कुर्यात्) बना देता है किन्तु (अन्यः) सज्जन पुरुष कंचन) किसीको भी (अन्यं न कुर्यात्) सज्जन नहीं कर सकता । (हि)
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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