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________________ क्षेत्रचूड़ामणिः । ११९ लिये (न शेके) समर्थ नहीं हुए । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे प्राज्ञैः प्रारब्धं) बुद्धिमानोंसे आरम्भ किये हुए कार्य में (परैः प्रति हन्तुं न पार्यते) दूसरे मनुष्य विघ्न डालनेके लिये समर्थ नहीं होते । अर्थात् — बुद्धिमानोंका कार्य नियमसे परिपूर्ण होता है ॥ ३ ॥ सत्वरं गत्वरः स्वामी तीर्थस्थानान्यपूजयत् । पावनानि हि जायन्ते स्थानान्यपि सदाश्रयात् ॥ ४ ॥ अन्वयार्थ — (सत्वरं ) शीघ्र (गत्वरः ) चनेवाले (स्वामी) जीवंधर स्वामीने (तीर्थ स्थानानि ) तीर्थ स्थानोंकी ( अपूजयत् ) पूजा की । अत्र नीति: ! हि निश्चयसे ( स्थानानि अपि ) स्थाने भी (सदाश्रयत्) सज्जन महात्मा पुरुषोंके आश्रयसे (पावनानि जायन्ते) पवित्र हो जाते हैं ॥ ४ ॥ सद्भिरध्युषिता धात्री संपूज्येति किमद्भुतम | कालायसं हि कल्याणं कल्पते रसयोगतः ॥ ५ ॥ अन्वयार्थ —— (सद्भिः अध्युषिता ) सज्जन महात्मा पुरुषोंसे निवास की गई हुई ( धात्री) पृथवी (संपूज्या ) पूजनीय हो जाती है ( इत्यत्र किमद्भुतम् ) इसमें क्या आश्चर्य है ? || (हि) निश्चयसे ( कालायसं ) काला लोहा भी (रसयोगतः ) रस प्रक्रिया से ( कल्याi) बहुमूल्य औषधिको (कलाते) प्राप्त हो जाता है ॥ ९ ॥ सदसत्संगमादेव सदसत्वे नृणामपि । तस्मात्सत्संगताः सन्तु सन्तो दुर्जनदूरगाः ॥ ६ ॥ अन्वायर्थः -- (सदसत्संगमात् एव) सज्जनों और दुर्तनोंके समागम हींसे (नृणाम) मनुष्यों के (सदसत्वे ) सज्जन और दुर्जनपना ( जायेते) उत्पन्न होता है । (तस्मात् ) इसलिये (सन्तः) सज्जन पुरुष
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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