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________________ षष्ठो लम्बः । अथ षष्ठो लम्बः। अथोपयम्य पद्मां तां रमयन्नप्ययात्ततः असक्तो हि सुखं भुङ्के कृतार्थोऽपि जनः कृती ॥१॥ ___अन्वयार्थः- (अथ, इसके पश्चात् (तां पद्मां) उस पद्भानामकी कन्यासे (उपयभ्य) विवाह करके (रमयन् अपि) उसके साथ सुखभोग करते हुए भी जीवंधर स्वामी (ततः अयात्) वहांसे चले गये । अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे (कतार्थः अपि) भोग सामग्रीसे कृतार्थ होने पर भी (कृती जनः) धर्मात्मा पुरुष (असक्तः सन् ) आसक्त नहीं होते हुए अर्थात् (विरक्त हो कर) (सुख भुङ्क्ते) सुखका भोग करते हैं ॥ १ ॥ पद्मा तु तद्वियोगेन दुःखसागरसादभूत् । तत्वज्ञानविहीनानां दुःखमेव हि शाश्वतम् ॥२॥ __अन्वयार्थः- (तु पुनः) फिर (पद्मा) पद्मा (तद्वियोगेन) जीवंधर स्वामीके वियोगसे ( दुःखसागरसात अभूत) दुःख सागरमें डूब गई । अत्रनीतिः ! (हि) निश्चयसे (तत्वज्ञानविहीनानां) तत्त्वज्ञान रहित जीवोंको (शाश्वतम् ) निरंतर (दुःखमेव स्यात, दुःख ही रहता है ॥ २ ॥ लोकपालजनैर्नायं रोर्बु शेके गवेषिभिः । प्रतिहन्तुं न हि प्राज्ञैः प्रारब्धं पार्यते परैः ॥३॥ अन्वयार्थः-----(गवेषिभिः) ढूंढनेवाले ( लोकपालननैः ) लोक पालके नौकर चाकर (अयं) इन जीवंधर स्वामीको (रोहुँ) रोकने के
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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