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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । तृष्णाग्निदह्यमानस्त्वं मूढात्मन्कि नु मुखसि । लोकव्यहितध्वंसोर्न हि तृष्णारूषोभिदा ॥२२॥ ____ अन्वयार्थः-(हे मूढात्मन् ) हे मूढ (आत्मा तृष्णाग्निदह्यमानः त्वं) तृष्णा रूपी अग्निसे जलता हुआ तू (किं नु मुह्यसे) क्यों मोहको प्राप्त होता है (हि) निश्चयसे (लोकद्वय हितध्वंसोः) इसलोक और परलोक संबंधी हितके नाश करनेवाले (तृष्णारुषोः) तृष्णा और क्रोधमें (न मिदा) कुछ भेद नहीं है ॥ २२॥ लोकद्रयहितायातमन्नैराश्यनिरतो भव । धर्मसौख्यच्छिदाशा ते तरुच्छेदः फलार्थिनाम् ॥२३॥ . अन्वयार्थः-- हे आत्मन् ) हे आत्मा तू ( लोकद्वय हिताय ) लोंकोंके हितके वास्ते (नैराश्यनिरतः भव) निराशपनेको प्राप्त हो अर्थात् विषयोंमें आशा छोड़ दे क्योंकि (तरुच्छे.. दः फलार्थिनाम् ) फलार्थी पुरुषों के वृक्षके नाश समान अर्थात् जो फल तो चाहते है और वृक्षको काट रहे हैं उन पुरुषोंके समान. ( ते आशा ) तेरी विषय संबंधी आशा (धर्मसौख्यच्छिद् ) धर्म और सुखको नाश करने वाली है ॥ २३ ॥ संसारासारभावोऽयमहो साक्षात्कृतोऽधुना। यस्मादन्यदुपक्रान्तमन्यदापतितं पुन: ॥ २४ ॥ - अन्वयार्थः--(अहो आश्चर्य है ? ( अधुना ) इस समय (मया) मैंने (अयं संसारासार भावः) इस संसारके असारपनेको (साक्षात्कृतः) प्रत्यक्ष कर लिया (यस्मात्) क्योंकि (अन्यत् उपक्रान्तम्) प्रारंभ कुछ और ही किया था (पुनः अन्यत् आपतितं) परन्तु कुछ और ही हो गया ॥ २४ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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