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________________ ७२ तृतीयो लम्बः । (तत्वज्ञानं) तत्व ज्ञान (लोकद्वयसुखावहम् ) इस लोक और परलोकमें सुखका देनेवाला है ॥ १८ ॥ तावता नावि नष्ठायां दृष्टोऽभूत्कूपखण्डकः। सत्यायुषि हि जायेत प्राणिनां प्राणरक्षणम् ॥१९॥ __अन्वयार्थ:---(तावता) उसी समय (नावि नष्टायां) नौकाके नाश होने पर कोई (कूप खण्डकः) लकड़ी विशेष (दृष्टः अभूत् ) दिखलाई दी । अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे (आयुषि सति) आयुके रहने पर (पाणिनां) प्राणियोंके (प्राणरक्षणम् ) प्राणोंकी रक्षा (जायेत) हो जाती है ॥ १९ ॥ श्रीदत्तस्तु तमारुह्य प्रासदद्वीपसंश्रितः। राज्यभ्रष्टोऽपि तुष्टः स्याल्लब्धप्राणो हि जन्तुकः॥२०॥ अन्वयार्थ:--(तु) इसके अनन्तर (श्रीदत्तः) श्रीदत्त सेठ (तं आरूह्य ) उस लकड़ीके टुकड़े पर चढ़ कर (हीपसंश्रितः प्रासदत) दुसरे द्वीपको प्राप्त होकर प्रसन्न हुआ । अत्रनीति: (हि) निश्चयसे (राज्यभ्रष्टः अपि) राज्य भ्रष्ट होने पर भी (लब्ध प्राणः जन्तुकः)प्राणोंसे बचा हुआ प्राणी (तुष्टः स्यात् ) संतुष्ट होता है ।२०। नष्टशेवधिरप्येष मृष्टमेवमतर्कयत् । दुःखार्थोऽपि सुग्वार्थी हि तत्त्वज्ञानधने सति ॥२१॥ अन्वयार्थः----(नष्टशेवधिः अपि एषः) नाश होगा है उपाजित धन जिसका ऐसे इस श्रीदत्त सेठने भी (एवं मृष्टं अतर्कयत् ) इस प्रकार विचार किया। अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे (तत्वज्ञान धने सति) तत्वज्ञान रूपी धनके रहने पर (दुःखार्थः अपि) दुखकर पदार्थ भी (सुखार्थः भवति) सुखकर हो जाते हैं ॥ २१ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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