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________________ १२६ षष्ठो लम्बः । वकः) ये गरुड़ है इम बुद्धिसे ध्यान किया हुआ बगुला ( विपं न हन्ति) विषको दूर नहीं कर सकता ।। २३ ।। सर्वदोषविनिर्मुक्तं सर्वज्ञोपज्ञमञ्जसा । तप्यध्वं तत्तपो यूयं किं मुधा तुषखण्डनैः ॥ २४ ॥ अन्वयार्थ : - (यत्तपः) जो तप ( सर्वदोषविनिर्मुक्तं ) सम्पूर्ण दोषों से रहित ( सर्वज्ञोपज्ञं ) सर्वज्ञका कहा हुआ हो (यू ) तुम लोग ( तत्तपः ) उस तपको ( अञ्जसा नृप्यध्वं ) भले प्रकार तपो ( मुधा तुपखण्डनैः किं ) वृथा भूसेके कूटने से क्या ॥ २४ ॥ रागादिदोषसंयुक्तः प्राणिनां नैव तारकः । पतन्तः स्वयमन्येषां न हि हस्तावलम्बनम् ॥ २५ ॥ अन्वयार्थः -- ( रागादिदोषसंयुक्तः देवः ) रागादि दोषों से सहित देव (प्राणिनां तारक: नैव ) प्राणियों को संसार समुद्रमे पार नहीं कर सकता । अत्र नातिः (हि) निश्चय से ( स्वयं पतन्तः ) आप ही डूबनेवाला ( अन्येषां दूसरोंकों (हस्तावलम्बनं न भवति) अपने हाथका सहारा देनेवाला नहीं हो सकता ।। २२ ॥ न च क्रीडा विभोस्तस्य बालिशेष्वेव दर्शनात् । अतृप्तश्च भवेतृप्तिं क्रीडया कर्तुमुद्यनः ॥ २६ ॥ अन्वयार्थः -- (तस्य विभोः) और उस ईश्वरके (कोड़ा न च ) क्रीड़ा नहीं हो सकती क्योंकि क्रीड़ा तो (बालिशेपु एव दर्शनात् ) बालकों में ही देखी जाती है । (च) और अथवा ( अतृप्तः ) जो अतृप्त पुरुष है ( क्रीड़ाया तृप्तिं कर्तुं ) वह क्रीड़से तृप्ति करनेके लिये (उद्यतः भेवेत्) उद्यत होता है ॥ २६ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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