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क्षत्र चूड़ामणिः ।
स्वैराचारस्वभावोऽपि नैश्वरस्यैश्यहानितः । अप्यस्मदादिभिर्देष्यं सर्वोत्कर्षवतः कुतः ॥ २७ ॥ अन्वयार्थ:- और ( ऐश्य हानित: ) ईश्वरपनेकी हानि होनेसे (ईश्वरस्य ईश्वरके ( स्वैराचारम्वभावः अपि न ) स्वेच्छाचार स्वभाव भी नहीं है । (अपि च) क्योंकि ( सर्वोत्कर्षवतः) सर्वोत्कर्ष वान उस ईश्वरके ( अस्मदादिभिः सह ) हम लोगों के साथ (कुतः द्वेष्यं) द्वेषपना कैसे हो सकता है || २७ ॥ अदोषश्वेदकृत्यं च कृतिनः किमु कृत्यतः । स्वैराचारविधिर्दृष्टो मत एव न चोत्तम ॥ २८ ॥
अन्वयार्थः -- ( चेत् ) यदि वह ईश्वर ( अदोषः ) निर्दोष (च) और (अकृत्यं) हृत्य रहित है तो फिर (कृतिनः) कृतकृत्य उस ईश्वरको (कृत्यतः ) जगतरूप कार्य करनेसे क्या फल और ( स्वैराचारविधिः) स्वेच्छाचार प्रवृत्ति भी (मत्त एव दृष्टः) उनमत्त पुरुषों में ही देखी जाती है (उत्तमे न) उत्तम पुरुषों में नहीं॥२८॥ इति प्रबोधिताः केचिद्र भूवस्तेषु धार्मिकाः । मृत्स्ना ह्यार्द्रत्वमायाति नोपलं जलसेचनात् ॥ २९ ॥ अन्वयार्थः -- ( इति प्रबोधिताः) इस प्रकार धर्म से संबोधित (तेपु ) उनमें से ( केचित् धार्मिकाः बभूवुः ) कई एक धर्मात्मा पुरुष बन गये अत्र नीति: ! (हि) निश्चय से ( जलसेचनात् ) जलके सींचने से (मृत्स्ना ) अच्छी मिट्टी ही ( आर्द्रत्वं आयाति ) गीली हो जाती है ( उपलं न ) पत्थर कभी गीला नहीं होता || २९ ॥ ठीक ही है -- उपदेश पात्रोंमें ही फलित होता है कुपात्रोंको उपदेश देनेसे कुछ फल नहीं होता ।। २९ ॥
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