SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षत्रचूड़ामणिः । १२५ (तदद्वयस्य आत्मनि, इन दोनोंका आत्मामें (अस्खलद्धृत्ति धारणम्) स्थिर वृत्तिसे धारण करनेको (वृत्तं कथ्यते ) सम्यग्चारित्र कहते हैं ॥ २० ॥ इति त्रयी तु मार्गः स्यादपवर्गस्य नापरम् । बाह्यमन्यतपः सर्व तत्रयस्यैव साधनम् ॥ २१ ॥ __ अन्वयार्थः-(तु) और ( इति त्रयी ) यह त्रयी . अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका समुदाय ही (अपवगस्य) मोक्षकी ( मार्गः ) प्राप्तिका उपाय ( स्यात् ) है, (अपरं न) इनसे भिन्न और दूसरा कोई मोक्षका मार्ग नहीं है । (अन्यत्सर्व) इनसे भिन्न और सब (बाह्यं तपः) बाह्य तप (तत्त्रयस्य एव साधनम्) इन्हीं तीनोंके साधक हैं ॥ २१ ॥ न च बाह्यतपोहीनमभ्यन्तरतपो भवेत् । तण्डुलस्यैव विक्लित्तिर्न हिं वयादिकं विना ॥२२॥ ____ अन्वयार्थः--( बाह्यतपोहीन ) बाह्य तपके बिना (अभ्यंतर तपः) अभ्यंतर तप (न च भवेतू) नहीं हो सकता । अत्र नीतिः । (हि ) निश्चयसे ( यथा वह्नयादिकं विना ) जैसे अग्निके बिना (तण्डुलस्य विक्लित्तिः न) चावलोंका पाक नहीं हो सकता ॥२२॥ तत्रयं च न मोक्षार्थमाप्ताभासादिगोचरम । ध्यातो गरुडबोधेन न हि हन्ति विषं वकः ॥ २३ ॥ __ अन्वयार्थः--(च) और ( आत्माभासादि गोचरम् ) झूठे भाप्त, आगम पदार्थ ये हैं विषय जिनके ऐसे (तत्रयं) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, और मिथ्याचारित्र ये ( मोक्षाथ न भवंति ) मोक्षके साधन नहीं हैं । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे) गरुड़ बोधेन ध्यातः
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy