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________________ २२६ एकादशो लम्बः । कृतिनामेकरूपा हि वृत्तिः संपदसंपदोः। न हि नादेयतोयेन तोयधेरस्ति विक्रिया ॥ ३ ॥ ___अन्वयार्थः-( हि ) निश्चयसे (संपदसंपदोः ) सम्पत्ति और विपत्तिमें (कृतिनां) बुद्धिमानोंकी ( वृत्तिः ) वृत्ति (एकरूपा भवेत् ) एकसी रहती है । सच है-(नादेयतोयेन ) नदीके जलसे (तोयधेः) समुद्र में (विक्रियानास्ति) विकार भाव नहीं होता है ॥३॥ सुखदुःखे प्रजाधीने तदाभूतां प्रजापतेः । प्रजानां जन्मवर्ज हि सर्वत्र पितरौ नृपाः॥ ४॥ अन्वयार्थः- ( तदा ) उस समय अर्थात् राज्य मिलने पर (प्रजापतेः ) महाराज जीवंधरके ( सुखदुःखे ) सारे सुखदुख (प्रजाधीने) प्रजाके आधीन (अभूताम् ) हो गये अर्थात् प्रजाके सुख दुःखसे वह अपनेको सुखी दुःखी समझने लगे । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चय से ( जन्मवर्ज ) जन्म देनेके सिवाय सर्वत्र अन्य सब विषयोंमें (नृपाः) राजा ही (प्रनानां ) प्रजाके (पितरौ स्तः ) मां बाप हैं ॥ ४ ॥ आसीत्प्रीतिकरं तस्य करदानं च दानवत् । वृषलाः किं न तुष्यन्ति शालेये बीजवापिनः ॥५॥ ___ अन्वयार्थः--(च) और (तस्य) उसकी प्रनाको (करदान) रानाको महसूल देना भी (दानवत ) दान देनेकी तरह (प्रीतिकर) प्रीतिकर अर्थातू आनंददायक (आसीत्) हुआ । अत्र नीतिः ! (हि ) निश्चमसे ( शालेये) पान्यके खेतों ( श्री नापिनः ) बीज बोनेवाले ( वृपलाः) किन लोग (किं) का (न तुप्यंति) संतुष्ट नहीं होते हैं, होते ही हैं ।
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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