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क्षत्रचूड़ामणिः ।
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अर्थात् जिस प्रकार किसान खेतमें बीज बोनेसे खुश होता है उसी प्रकार प्रजा राजाको कर देने में प्रसन्न थी ॥ ५ ॥ मित्रोदासीनशत्रूणां विषयेष्वपसर्पतः । तदज्ञानेऽपि तद्ज्ञानात्त देवासीत्प्रतिक्रिया ॥ ६ ॥
अन्वयार्थः -- ( तदज्ञानेऽपि ) उस राजा के राज्य में राजाको स्वयं किसी कार्यका साक्षात् ज्ञान नहीं होनेपर भी ( मित्रोदासीन. शत्रूणां ) मित्र, शत्रु और उदासीन राजाओंके ( विषयेषु) देशों में ( अपसर्पतः ) घूमने वाले गुप्तचरों द्वारा ( तद्ज्ञानात् ) उनका सारा वृत्तान्त जानकर ( तदाएव ) उसी समय (तत्प्रतिक्रिया ) उसका उपाय ( आसीत् ) होता था ॥ ६ ॥ .
रात्रिंदिवविभागेषु निघतो नियतिं व्यधात् । कालातिपातमात्रेण कर्तव्यं हि विनश्यति ॥ ७ ॥
अन्वयार्थ : - ( नियत ) नियम पूर्वक कार्य करनेवाले उस राजाने ( रात्रिन्दिवविभागेषु ) रातदिन के विभागों में ( नियति ) नियत किये हुए कार्यको (व्यधात् ) यथा समय पर किया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( कालातिपातमात्रेण ) काम करने योग्य समयके निकल जाने पर (कर्तव्यं विनश्यति) योग्य कार्य नष्ट होते हैं ॥ ७ ॥
तपसा हि समं राज्यं योगक्षेमप्रपञ्चतः । श्रमादे सत्यधःपातादन्यथा च महोदयात् ॥ ८ ॥
अन्वयार्थ :- (हि) निश्रयसे ( योगक्षेमपपञ्चतः) योग और ओमके विस्तार से (तपसा समं राज्यं) तपके समान राज्य है अर्थात्