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एकादशो लम्बः । जिस प्रकार तपमें योग और क्षेमकी (मन वचन काय रूप योगोंके रोकनेकी) आवश्यकता है उसी प्रकार राज्यमें योग और क्षेमकी आवश्यकता है । कभी नहीं प्राप्त वस्तुके पानेको योग कहते हैं। और प्राप्तकी रक्षा करना क्षेम कहलाता है। और (प्रमादे सति) प्रमाद होने पर अर्थात् राजा और तपस्वी राज्य पालन और तपस्यामें यदि प्रमाद करे तो ( अधःपताद् ) दोनोंका अधः पतन होता है (च) और (अन्यथा) प्रमाद रहित योग और क्षेम पालन करनेसे ( महोदयात् ) दोनोंका महान् उदय होता है ॥ ८ ॥ प्रबुद्धेऽस्मिन्भुवं कृत्स्नां रक्षत्येकपुरीमिव । राजन्वती च भूरासीदन्वर्थ रत्नसूरपि ॥९॥ _____ अन्वयार्थः-(प्रवुद्धेऽस्मिन्) सारे कार्योंमें सावधान इस राजाके ( एक पुरीं इव ) एक पुरी (नगरी) के समान (सत्म्नां भुवं) सारी पृथ्वीकी (क्षति सति) बुद्धिमानीसे रक्षा करनेपर (भू ) पृथ्वी ( रामवती ) श्रेष्ठ रामासे युक्त (अन्वर्थ) सार्थक (रत्नसुरपि) रत्नगर्भा (आसीत् ) हुई ॥९॥ एवं विराजमानऽस्मिन्राजराजे महोदये । विजया जननी तस्य विरक्ता संसृतावभूत् ॥१०॥ ___अन्वयार्थः- एवं इस प्रकार (महोदये) महान् उदयवाले (अस्मिन् राजराजे इस राजेश्वरके (विराजमाने) विराजमान होने पर विनयातस्य जननी विजया नामकी जीवंधरकी माता (संसृतो विरक्ता) संसारसे विरक्त ( अभूत् ) हुई अर्थात् उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ ॥ १० ॥