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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । जीवकादपरान्नेक्षे पुरुषानिति संविदा। कन्यागृहमथ प्रापन्न हि भेद्यं मनः स्त्रियाः ॥ २७॥ अन्वयार्थः- ( अथ ) इसके अनंतर " ( अहं जीवकात् अपरान् पुरुषान् ) जीवंधर कुमारके सिवाय दूसरे पुरुषको (न ईक्षे) नहीं देखूगी" (इति संविदा) ऐसी प्रतिज्ञा करके (कन्या) वह सुरमञ्जरी (गृहं प्रापत्) अपने घरको चली गई। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (स्त्रियाः मनः) स्त्रीका मन (न भेद्य) किसीसे भेदा नहीं जा सकता अर्थात् स्त्रीकी हठ प्रसिद्ध है उसकी हठ किसीसे टाली नहीं जा सकती ॥ २७ ॥ सख्या तथैव यातायां गुणमाला शुशोच ताम् । न ह्यनिष्टष्टसंयोगवियोगाभमरुन्तुदम् ॥ २८ ॥ _अन्वयार्थः-(सख्यां तथैव यातायां) सखिके वैसे ही चले जानेपर (गुणमाला) गुणमालाने (तां शुशोच) उसके लिये बहुत शोक किया। अत्रानीतिः (हि) निश्चयसे (अनिष्टेष्ट संयोगवीयोगाभम् ) अनिष्ट दुखदाई वस्तुसे संयोग और इष्ट सुखदाई वस्तुसे वियोगके समान (अरुन्तुदम् न) कोई पीड़ा देनेवाला नहीं है ॥ २८ ॥ गन्धसिन्धुरतो भीतिरामीदथ पुरौकसाम् । विपदोऽपि हि तभीतिमूढानां हन्त बाधिका ॥२९॥ _अन्वयार्थः-(अथ) इसके अनंतर ( पुरौकसाम् ) राजपुरी नगरीमें रहने वाले मनुष्योंको (गन्धसिन्धुरतः) गंध हस्तीसे (भीतिः आसीत् ) भय हुआ अर्थात् काष्टाङ्गारका एक हाथी अपने स्थानसे छूटकर मदोन्मत्तासे मनुष्योंको इधर उधर मारता हुआ
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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