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________________ चतुर्थो लम्बः । ___ अन्वयार्थ-( अथ ) इसके अनंतर ( कुट्टन्यौ ) वे दोनों दासिये जीवंधर कुमारकी ( नुत्वा नत्वा च ) स्तुति और वंदना करके (कुमारात् ) जीवंधर कुमारके पाससे (निर्गते ) चली गई। अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे (भूतले) पृथ्वी तल पर (निर्विवाद वितन्वाना) विवाद रहित कार्यको निर्णय करनेवाले पुरुष (केन न स्तुत्याः) किस पुरुषसे स्तुति करने योग्य नहीं हैं अर्थात् सब ऐसे पुरुषोंकी पूजा करते है ॥ २४ ॥ तचासीत्तुरमार्या विरागस्यैव कारणम् । न ह्यत्र रोचते न्यायमीादूषितचेतसे ॥२६॥ ____ अन्वयार्थः- तच्च) और यह निर्णय (पुरमञ्जर्याः) सुरमञ्जरीके (वैराग्यस्य एव ) वैराग्यका ही (कारणं आसीत् ) कारण हुआ । अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे (अत्र) संसारमें (ईदूिषित चेतसे) ईर्षासे दूषित चित्तवाले पुरुषके लिये (न्यायं) न्यायकी बात (न रोचते) रुचिकर नहीं होती है ॥ २५ ॥ प्रार्थिताप्यकृतस्नाना सत्वरं सुरमञ्जरी । न्यवर्तिष्ट महारोषादीया हि स्त्रीसमुद्भवा ॥२६॥ __अन्वयार्थः -- ( प्रार्थिता अपि सुरमञ्जरी) स्नान के लिये प्रार्थित भी सुरमञ्जरी (अकृतस्नाना) स्नान विना किये हुवे ही (महारोषात) अत्यंत क्रोधसे (सत्वरं) शीघ्र ही (न्यवर्तिष्ट) लौट गई । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( ईर्ष्या) ईर्षा (स्त्री समुद्भवा) स्त्रियोंसे ही उत्पन्न हुई है अर्थात् सबसे अधिक ईर्षा भाव स्त्रियोंमें ही रहता है ॥ २६ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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