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________________ क्षत्र चूड़ामणिः । ९१ होते हुए “ (अन्यैः उक्तम् अपि) दूसरों से कहा हुआ ही आपने (उक्तम्) कहा (किं) क्या (तैः सार्धं) उनके साथ ( भवान् अध्यैष्ट) आपने पढ़ा है " (इति) इस प्रकार ( अब्रवीत् ) उत्तर दिया | २१|| चूर्णयोरलिभिः स्वामी गुणदोषाव साधयत् । निर्विवादविधिनों चेन्नैपुण्यं नाम किं भवेत् ॥ २२ ॥ अन्वयार्थः - फिर (स्वामी) जीवंधर स्वामीने ( चूर्णयोः गुणदोष ) गुणमाला और सुरमञ्जरीके चूर्णोंके गुण और दोषोंका निर्णय (अलिभिः) भ्रमरोंके द्वारा ( असाधयत् ) सिद्ध किया । अत्र नीति: ( चेत् ) यदि ( निर्विवादविधिः न स्यात् ) विवाद रहित विधि न होवे तो फिर ( नैपुण्यं नाम किं भवेत् ) चतुराई ही क्या कहलावे ।। २२ ॥ आकालिकतया दुष्टं चूर्णमन्यदवर्णयत् न कालकृतं कर्म कार्यनिष्पादनक्षमम् ॥२३॥ अन्वयार्थ :- जीवंधर स्वामीने ( अन्यत् चूर्ण) सुरमञ्जरीके चूर्ण को ( आकालिकतया ) असमय में बनाये जानेसे (दुष्टं ) दूषित (अवर्णयत्) बतलाया अर्थात् सुरमञ्जरीका चूर्ण शरदऋतुके समयके अनुकूल था इसलिये उसमें सुगंध न होने से उस पर कोई भरा नहीं आया । अत्र नीति: (हि) निश्चयसे ( अकालकृतं कर्म ) असमय में किया हुआ उद्योग ( कार्य निष्पादनक्षमम् न भवति ) कार्यके निष्पादन करने में समर्थ नहीं होता है || २३ || कुमारादथ कुन्यौ नुत्वा नत्वा च निर्गते । निर्विवाद वितन्वाना न स्तुत्याः केन भूतले ॥ २४ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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