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चतुर्थो लम्बः ।
वाले सज्जन पुरुषोंके समीपमें ( प्राहिणुतां) भेजी । अत्र नीतिः निश्चयसे (मत्सरिभ्यः) मत्सर करनेवाले पुरुषोंको (किं किं कुत्सितं कर्म) कौन २ खोटा कर्म ( न रोचते) नहीं रुचता है अर्थात् सभी खोटे कर्म रुचते हैं ॥ १८ ॥ अस्थिषातामथागत्य चेट्यौ जीवककोविदे । अनवद्या मती विद्या लोके किं न प्रकाशते ॥ १९ ॥ अन्वयार्थ : - ( अथ ) तदनंतर (चेट्यौ ) वे दोनों दासिय ( जीवककोविदे ) बुद्धिमान जीवंधर स्वामीके समीप ( आगत्य ) आ करके ( अस्थिषातां ) ठहर गईं। अत्र नीति: (हि) निश्वयसे (लोके) प्रसार में ( सती अनवद्या विद्या) समीचीन निर्दोष विद्या ( किं न प्रकाशते ) किस बातको प्रकाशित नहीं करती है । अर्थात् उत्तम विद्यासे इस लोकमें सब बातोंका निर्णय हो जाता है ।। १९ ।। गुणवद्गुणमालायाश्चूर्ण निर्वर्ण्य सोऽभ्यधात् । पाण्डित्यं हि पदार्थानां गुणदोषविनिश्चयः ॥२०॥
अन्वयार्थः - ( स ) उस जीवंधरने ( गुणमालायाश्चूर्ण ) गुणमाला चूर्णको (निर्वर्ण्य) देखकर (गुणवत्) गुणवान् (अभ्यवाद) बतलाया । अत्र नीतिः (हि) निश्चय से ( पदार्थानां गुणदोषविनिश्चयः) पदार्थोंके गुण और दोषका निश्चय करना ही ( पाण्डित्यं ) पाण्डित्य है ।। २० ।
चेटी तु सुरमञ्जर्यास्तच्छुत्वा रोषणाब्रवीत् । अन्यैरप्युक्तमुक्तं तैः किमध्यैष्ट भवानिति ॥ २१ ॥
अन्वयार्थः – (तु) इसके अनंतर (सुरमञ्जर्याः चेटी) सुरमञ्जकी दासीने (तद् श्रुत्वा ) यह बात सुनकर (रोषणा सती) को धित