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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । (मुहुः मुहुः आप्टच्छय) बार बार पूछ कर” (गते) चले जाने पर (अत्र प्रस्तुतं उच्यते) यहां जो वृतान्त हुआ उसे कहते हैं ॥१५॥ चूर्णार्थ सुरमार्याः स्पर्धाभूद्गुणमालया। एकार्थस्पृहया स्पर्धा न वर्धतात्र कस्य वा ॥१६॥ ____ अन्वयार्थः-(चूर्णार्थ) चूर्णके लिये सुरमअर्याः) सुरमज्जरीकी (स्पर्धा) ईर्षा (गुणमालया अभूत) गुणमालाके साथ हुई । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (अत्र) इस संसारमें (एकार्थस्टहया) एक ही पदार्थकी इच्छा करनेसे (कस्य) किसके (स्पर्धा न भवेत) ईर्षा नहीं बढ़ती है । अर्थात्-सबके यही इच्छा होती है कि मैं ही इस पदार्थको लेलू । अथवा मेरी ही वस्तु औरकी वस्तुसे उत्तम हो ॥ १६ ॥ मा भूत्पराजिता स्नाता नादेये वारिणीति वै।। संगिराते स्म ते सख्यौमात्सर्याटिकन नश्यति ॥१॥ अन्वयार्थः- "(पराजिता) हारी हुई (नादेये वारीणी स्नाता मा भूत) नदीके जलमें स्नान नहीं करै " (इति) ऐसी ( ते सख्यौ ) उन दोंनों सखियोंने (वै संगिराते स्म) प्रतिज्ञा की। अत्र नीत्तिः (मात्सर्यात्किं न नश्यति) द्वेष भावसे क्या नाश नहीं होता है ? अर्थात् सभी कार्य नष्ट हो जाते हैं ॥ १७ ॥ कन्ये प्राहिणतां पश्चाचेट्यौ स्वे निकटे सताम् । कुत्सितं कर्म किं किं वा मत्सरिभ्यो न रोचते ॥१८॥ ____ अन्वयार्थः-(पश्चात् कन्ये) फिर दोनों कन्याओंने (स्वे चेट्यौ) अपनी दो दासिये (सतां निकटे) चूर्णकी परीक्षा करने
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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