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________________ चतुर्थो लम्बः । उसी ही वसंतक्रीड़ाके स्थान पर आया । अत्र नीतिः ( हन्त ) खेद है ! (हि) निश्चयसे (विपदः अपि) विपत्तिसे भी (तद्धोतिः) विपत्तिका जो भय है वह (मूढानां बाधिका) मूर्ख पुरुषोंको अत्यंत बाधा करने वाला होता है ॥ २९ ॥ परिजनस्तु तं पश्यन्गुणमालामथात्यजत् । न हि सन्तीह जन्तूनामपाये सति बान्धवाः ॥३०॥ - अन्वयार्थः- ( तं पश्यन् ) हाथीके देखते हुवे (परिजनः) गुणमालाके संबंधी पुरुषोंने (गुणमालां अत्यनत्) उस गुणमालाको अकेली छोड़ दी। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( इह ) इस संसारमें (अपाये सति) विपत्ति पड़ने पर (जन्तूनां ) मनुष्योंके (बान्धवाः न सन्ति) बन्धु नहीं रहते हैं अर्थात् विपत्ति कालमें सब छोड़कर भाग जाते हैं ॥ ३० ॥ कृत्वा तां पृष्ठतो धात्री काचिदस्थाद्दयावहम् । हतायां मय्यतः पूर्व कन्येयं हन्यतामिति ॥ ३१ ॥ __ अन्वयार्थः- (काचिद् धात्री) कोई धाय “ (पूर्वमयि हता. यां सत्यां) पहले मेरे हत जाने पर ( अतः इयं कन्या हन्यतां) पश्चाद् इस कन्याको मारना" (इति उक्त्वा ) यह कह कर (दया वहम् अस्थात्) दयाभावसे खड़ी हो गई ॥ ३१ ॥ समदुःखसुखा एव बन्धवो ह्यत्र बान्धवाः । दूता एव कृतान्तस्य इन्द्रकाले पराखाः ॥३२॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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