________________
क्षत्रचूड़ामणिः ।
९५
अन्वयार्थः — (हि) निश्चय से ( अत्र ) इस संसार में (सम दुःखसुखाः बन्धवः एव) समान हैं दुःख और सुख जिनके ऐसे बन्धु ही (बान्धवाः) मित्र ( सन्ति ) कहलाते हैं और जो ( द्वन्द परामुखाः) विपत्ति कालमें साथ छोड़कर दूर भाग जाते हैं वे कृतान्तस्य) यमके ( दूता एव) दूत ही हैं ॥ ३२ ॥ स्वामी परिणतं वीक्ष्य करिणं तं न्यवारयत् । स्वापदं न हि पश्यन्ति सन्तः पारार्थ्यतत्पराः ॥३३॥
अन्वयार्थ :- स्वामी) जीवंधर स्वामीने (परिणतं दांतोंसे प्रहार करते हुए (तं करिणं) उस हाथीको (वीक्ष्य) देख कर (न्य - वारयत् ) हटा दिया । अत्र नीति: ( हि ) निश्चय से (पारार्थ्य तत्पराः) दूसरे मनुष्योंके उपकार करने में तत्पर / सन्तः) सज्जन पुरुष (स्वापदं न पश्यन्ति ) अपनी आपत्तिको नहीं देखते हैं ॥ ३३ ॥ यत्र कापि हि सन्त्येव सन्तः सार्वगुणोदयः । क्वचित्किमपि सौजन्यं नो चेल्लोकः कुतो भवेत् ॥ ३४ ॥
अन्वयार्थः – (हि) निश्वयसं ( सर्वगुणोदयः ) सबके हितके लिये ही है गुणोंकी उत्पत्ति जिनमें ऐसे ( सन्तः) सज्जन पुरुष (यत्र कापि ) जहां कहीं पर ( सन्त्येव) विद्यमान ही हैं । (चेत्) यदि (क्वचित्) कहीं पर (किमपि) कुछ भी ( सौजन्यं) सुजनता ( न स्यात्) न होवे तो फिर (लोकः कुतः भवेत् ) संसार ही कैसे चले ॥ ३४ ॥
परिवारोऽप्यथायासीदहंपूर्विकया स्वयम् । स्वास्थ्येदृष्टपूर्वाश्च कल्पयन्त्येव बन्धुताम् ||३५||