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________________ चतुर्थो लम्बः । अन्वयार्थ : -- ( अथ ) इसके अनंतर ( परिवारः अपि ) परिबारके मनुष्य भी (स्वयं) अपने आप ही " ( अहं पूर्विकया) मैं इससे पहले आया मैं इससे पहले आया" (इति) ऐसा कहते हुए (अयामीत्) आये । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( स्वास्थ्ये) सुखमें (अदृष्टपूर्वाश्च) पूर्वमें नहीं देखे हुये पुरुष भी (बन्धुतां कल्पयन्ति ) बन्धुपको कल्पना करते हैं ॥ ३५ ॥ अन्योऽन्यदर्शनादासीत्कामः कन्याकुमारयोः । दुःखस्यानन्तरं सौख्यं ततो दुःखं हि देहिनाम् ||३६|| अन्वयार्थः - ( अन्योन्यदर्शनात् ) एक दूसरेको परस्पर देखने से (कन्याकुमारयोः) कन्या और कुमार में ( कामः आसीत् ) प्रीति उत्पन्न हुई । अत्र नीति: (हि) निश्चय से (देहिनाम् ) मनुप्योंके (दुःखस्यानन्तरं सौख्यं) दुःखके अनंतर सुख और (ततः दुःखं भवति) सुखके पीछे दुःख होता है ॥ ३६ ॥ अशान्तस्वान्तसंतापा निशान्तं पाप सा पुनः । नो चेद्विवेकनीरौघो रागाग्निः केन शाम्यति ||३७|| अवयार्थ : - (पुन) फिर " ( अशान्तस्वान्तसन्तापा ) नहीं शान्त हुआ है हृदयका संताप जिसका अर्थात् काम पीड़ासे संतप्त वह कन्या (निशान्तं प्राप) घरको चली गई । अत्र नीतिः ( चेत् ) यदि (विवेकनीरौधः न स्यात्) विवेकरूपी जलका प्रवाह नहीं होवे तो फिर (रागाग्निः) राग रूपी अग्नि ( केन शाम्यति ) किससे शान्त हो सकती है ? क्रोडाशुकं च प्राहैषीत्सविधे स्वामिनः पुनः । योग्यायोग्य विचारोऽयं रागान्धानां कुतो भवेत् ||३८| ii ३७ ॥ ९६
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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