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नक्मो लम्बः। मक्षिकापक्षतोऽप्यच्छे मांसाच्छादनचर्मणि । लावण्यं भ्रांतिरित्येतन्मूढेभ्यो वक्ति वार्धकम् ॥१६॥ ___ अन्वयार्थः- (वार्धकम् ) बुढ़ापा (मूढेभ्यः) मूढ़ मनुष्योंसे (मक्षिकापक्षतः) मक्खियोंके पंखोंसे भी ( अच्छे ) पतले (मांसा. च्छादन चर्मणि ) शरीरके मांसको ढकनेवाले चमड़ेमें (लावण्यं भ्रांतिः) सुन्दरता मानना सर्वथा भ्रम है (इति) (एतद् ) इस बातको ( वक्ति ) कहता है ॥ १२॥ प्रतिक्षणविनाशीदमायुः कायमहो जडाः। नैव बुध्यामहे किंतु कालमेव क्षयात्मकम् ॥ १३ ॥ ___ अन्वयार्थः- (हे जड़ाः) हे मूर्यो (इदम् ) यह ( आयुः कायं ) आयु और शरीर ( प्रतिक्षणविनाशि ) क्षणक्षणमें नाश होनेवाला है किंतु अहो!) खेद है ! (वयं) हम सब (नैव बुध्यामहे) नहीं जानते है (किंतु कालं एव) किंतु समयको (क्षयात्मकम् बुध्यामहे) नष्ट होनेवाला समझते हैं ॥ १३ ॥ हन्त लोको वयस्यन्ते किमन्यैरपि मातरम् । मन्यते न तृणायापि मृतिः श्लाघ्या हि वार्धकात्॥१४॥ _____ अन्वयार्थः– (हन्तः) शोक है ! ( लोकः ) मनुष्य ( अन्ते वयसि) बुढापेकी अवस्थामें (मातरं अपि) जीवन देनेवाली माताको भी (तृणाय अपि.न मन्यते) तृणके समान भी नहीं समझते हैं (अन्यैः किं) औरका तो फिर कहना ही क्या है (हि यतः) इसलिये (मृतिः) मरना ही ( वार्धकात् ) बुढ पेसे (श्लाघ्या) अच्छा है ॥ १४ ॥