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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । यौवनं सत्त्वमैश्वर्यमेकैकं च विकारकृत् । समवायो न किं कुर्यादविकारोऽस्तु तैरपि ॥५२॥ ___ अन्वयार्थः---यौवनं) युवावस्था (सत्व) बल वा शरीर सामर्थ्य और (ऐश्वर्य) ईश्वरता अर्थात् प्रभुपना (एकैकं) पृथक् पृथक् (विकारकृत्) विकार भावोंको करनेवाले हैं। अर्थात् इनमेंसे प्रत्येकके होने पर मनुष्य कुपथमें प्रवृत्त होजाता है तो (समवायः) समुदाय अर्थात् समूह (किं) किस अनर्थक कार्यको (न कुर्यात) नहीं करेगा ? करेगा ही (तुतैः अपि) इसलिये इन तीनोंसे भी तुम्हारा चित्त ( अविकारः अस्तु ) विकार रहित होवै ? ऐसा आशीर्वाद गुरुने जीवंधरको दिया ।।५२॥ न हि विक्रियते चेतः सतां तडेतुसंनिधौ । किं गोष्पदजलक्षोभी क्षोभयेन्जलधेर्जलम् ॥५३॥ अन्वयार्थः-(हि) निश्चयसे (सतां चेतः) सजन पुरुषोंका चित्त (तद्हेतु संनिधौ) विकारको कारण मिलने पर भी (न विक्रियते) विकारको प्राप्त नहीं होता है। (किं) क्या (गोष्पदनल. क्षोभी) गायके खुर प्रमाण जलको मलिन करनेवाला मेंढक जलधेः] समुद्रके ( जलं ) जलको (क्षोभयेत्.) क्षोभित कर सकता है ? कदापि नहीं ॥५३॥ देशकालखलाः किं तैश्चला धीरेव बाधिका। अवहितोऽत्र धर्मे स्यादवधानं हि मुक्तये ॥५४॥ ____ अन्वयार्थः--(देशकालखलाः) देश, काल और दुर्जन ये (किं कुर्युः) क्या करेंगे (तैः चला) उनसे चलायमान (धीः एव बाधिका)
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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