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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । .१११ अन्वयार्थ : - ( हितान्वेषी) हितके चाहनेवाले (सः देवः अपि ) उस देवने भी ( मनीषिणः तस्य) बुद्धिमान इस जीवंधर कुमारकी ( मनीषितं ) इच्छाको (ज्ञात्वा ) जान कर (अनुमेने) अनुमति दी । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (निर्जराः) देव ( त्रिकालज्ञाः भवति) तीनों कालकी बातें जाननेवाले होते हैं ॥ ३० ॥ इदं तया यथोदन्तमुपादिश्याथ संमतः । सुदर्शनेन सोऽयासीद्धितत्त्वं हि मित्रता ॥ ३१ ॥ अन्वयार्थ : - (अथ ) इसके अनंतर ( इदंतया) इस प्रकार (पथोद उपादिश्य) जानेके मार्गके वृतांतके उपदेशको प्राप्त कर (सुदर्शनेन ) सुदर्शन यक्षकी ( संमतः ) अनुमति सहित (सः) वह जीवंधर कुमार वहांसे (अयासीत् ) चले गये । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (हित कृत्वं) हित करनापना ही (मित्रता भवेत् ) मित्रता कहलाती है ॥ ३१ ॥ एकाकी व्यहरत्स्वामी निर्भयोऽयमितस्ततः । न हि स्ववीर्यगुप्तानां भीतिः केसरिणामिव ॥३२॥ अन्वयार्थः- (अयं स्वामी) इन जीवंधर स्वामीने (निर्भयः) भय रहित ( इतस्ततः) इधर उधर ( एकाकी) अकेले (व्यहरत् ) विहार किया अत्रनीति: (हि) निश्चय से ( स्ववीर्य गुप्तानां ) अपने पराक्रमसे रक्षित पुरुषोंको (केसारिणां इव) सिंहों की तरह ( भीतिः न भवेत् ) भय नहीं होता है ॥ ३२ ॥ एकाकिनोsपि नोद्वेगो वशिनस्तस्य जातुचित् । विक्रिया हि विमूढानां संपदापल्लवादपि ॥ ३३ ॥ 5
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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