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________________ पञ्चमो लम्बः । अन्वयार्थ :- (सः कुमारः अपि ) उस जीवंधरकुमारने भी ( रोषतः ) क्रोधसे ( चमूम् ) सेनाको ( प्रहतु) मारने का (प्रारेभे ) प्रारंभ किया । अत्र नीति: ( चेतू ) यदि तत्वज्ञान जलं ) तत्वज्ञान रूपी जल ( नो स्यात् ) नहीं होवे तो फिर ( क्रोधाग्निः ) क्रोध रूपी अग्नि ( केन शाम्यति ) कौन बुझा सकता है ? ॥ ९ ॥ न्यरौत्सीत्तस्य संनाहमथ गन्धोत्कटः शनैः । अलङ्घयं हि पितुर्वाक्यम्पत्यैः पथ्यकाङ्क्षिभिः ।। १० अन्वयार्थ : - (अथ ) इसके अनंतर (गन्धोत्कटः) गन्धोत्कट सेठने ( तस्य संनाहं ) उसकी लड़ने की तैयारियोंको ( शनैः) धीरे २ ( न्यरौत्सीत् ) रोका । अत्र नीति: (हि) निश्चय से (पथ्यकाङ्क्षिभिः अपत्यैः ) हितकी इच्छा करनेवाले पुत्रादिक संतान ( पितुः वाक्यं ) पिताका बचन ( अलङ्घयं ) उल्लंघन नहीं करते हैं ॥ १० ॥ पश्चाद्वडममुं पश्चादसौ गन्धोत्कटो व्यधात् । न हि वारयितुं शक्यं पौरुषेण पुराकृतम् ॥ ११ ॥ - १०४ अन्वयार्थ :- ( पश्चात् ) इसके अनंतर ( असौ गन्धोत्कटः) इस गंधोत्कटने ( अमुम् ) जीवंधर कुमारको ( पश्चात् बद्ध) पीछेकी ओरसे मुश्र्के बंधा हुआ (व्यधातू) कर दिया अर्थात् - उसके हाथ पीछे बांध कर सेनाको सोंप दिया । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( पुराकृतम्) पूर्व में किया हुआ दुष्कर्म (पौरुषेण) पुरुषार्थसे (वारयितुं ) निवारण ( न शक्यं) नहीं हो सकता ॥ ११ ॥ दृष्ट्रापि तं तथाभूतं हन्तुमाह सः दुर्मतिः । सतां हि प्रहृता शान्त्यै खलानां दर्पकारणम् ॥ १२ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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