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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । १०३ अपिः) उपकार करना भी (अपकाराय ) अपकारके लिये (कल्पते) होता है (हि) निश्चयसे. (पन्नगेन पीतं) सर्पसे पीया हुआ (पयः) दूध (विपस्य एव) विषकी ही ( वर्धनम् ) वृद्धि करता है ।।६।। हस्तग्राहं ग्रहीतुं स कुमारं प्राहिणोडलम् । मूढानां हन्त कोपाग्निरस्थानेऽपि हि वर्धते ॥७॥ ___अन्वयार्थः-(सः) उस काष्टाङ्गारने (कुमार) जीवंधर कुमारको ( हस्तग्राहं ग्रहीतुं ) हाथ बांधकर पकड़कर लानेके लिये (बलं) सेना (माहिणोत) भेनी । अत्र नीतिः (हन्त) खेद है ? (मूढानां) मूर्ख पुरुषोंकी (कोपाग्निः) क्रोधरूपी अग्नि (अस्थाने अपि) अयुक्त स्थानमें भी (वर्धते) बढ़ती है ॥ ७ ॥ अर्थात् जहां क्रोध नहीं करना चाहिये मूर्ख जन वहां भी क्रोध करते हैं ॥ ७ ॥ कुमारावसथं पश्चात्तत्सैन्यं पर्यवारयत् । मृगाः किं नाम कुर्वन्ति मृगेन्द्र परितः स्थिताः॥८॥ अन्वयार्थः- ( पश्चात् ) इसके अनंतर ( तत्सैन्य ) काष्टाङ्गारकी सेनाने (कुमारावसथं) कुमारके रहनेके स्थानको ( पर्यवारयत् ) चारों तरफसे घेर लिया । अत्र नीतिः ( मृगेन्द्र परितः स्थिताः ) सिंहके चारों ओर घेर कर खड़े हुए ( मृगाः) हिरन ( किं नाम कुर्वन्ति ) सिंहका क्या कर सकते हैं ॥ ८ ॥ प्रारंभे स कुमारोऽपि प्रहर्तु रोषतश्चमूम् । तत्त्वज्ञानजलं नो चेक्रोधाग्निः केन शाम्यति ॥९॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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