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________________ १०२ पञ्चमो लम्बः । अग्नि (सर्पिष् पातेन) घीके डालने से ( सुतरां ) स्वतः ही (उदचिः भवेत् ) ऊंची ज्वाला वाली होती है ॥ ३ ॥ सङ्गादनङ्गमालाया विजयाच वनौकसाम् । वीणाविजयतश्चास्य कोपाग्निः स्थापितो हृदि ॥ ४ ॥ अन्वयार्थ : - ( अस्य हृदि ) इस काष्टाङ्गर के हृदय में " ( अनन मालायाः सङ्गात् ) अनमाला के समागमसे, ( बनौकसाम् विजयातू) गौओंके पकड़नेवाले व्याघों के जीतनेसे और ( वीणा विजयितः) वीणा में विजयी होनेसे ( इन तीन कारणों से ) " (कोपानि :) क्रोध रूपी अग्नि (स्थापिता) स्थापित थी ॥ ४ ॥ गुणाधिक्यं च जीवानामाधेरेव हि कारणम् । नीचत्वं नाम किं तु स्यादस्ति चेद्गुणरागिता ॥५॥ अन्वयार्थः - (हि) निश्चय से (गुणाधिक्यं च ) दूसरोंमें गुणों की अधिकता ही (जीवानां) नीच मनुष्यों के ( आघेरेव ) मानसीक पीड़ाकाही ( कारणम् ) कारण ( भवेत् होती है । (चेत) यदि ( गुणरागिता अस्ति ) दूसरेके गुणों में प्रीति होवे तो फिर (नीचत्वं नाम ) नीचता ही ( किं नु स्यात् ) क्या रहे || ९ || उपकारोsपि नीचानामपकाराय कल्पते । पन्नगेन पयः पीतं विषस्यैव हि वर्धनम् ॥ ६ ॥ अन्वयार्थः—(नीचानां) नीच पुरुषोंके साथ ( उपकारः ग्रंथ में वर्णन नहीं नोट: - १ -- ग्रंथकारने अनङ्गमाला " का इस किया है किन्तु गद्यचिन्तामणिमें वेश्याकी पुत्री काष्टाङ्गारका अनादर करके जीवंधर के साथ विवाह किया ऐसा लिखा है | अनङ्गमाला " ने • "
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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