SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षत्र चूड़ामणिः । ववृषुर्वारिदास्तत्र तावतैव गर्जिताः । सुकृतीनामहो वाञ्छा सफलैव हि जायते ॥ ३६ ॥ अवयार्थः तत्र ) वहां पर ( तावता एवं ) उसी समय ( वारिदाः) मेघ (सगर्जिताः सन्तः) गर्जना करते हुए (ववृषुः ) बरसे अत्र नीति: ! ( अहो ! ) आश्चर्य है ! (हि) निश्चयसे ( सुकृतीनां ) पुण्यवान पुरुषोंकी ( वान्छा) इच्छा ( सफला एव जायते ) सफल ही होती है ॥ ३६ ॥ अनेक पानसौ वीक्ष्य रक्षितानतृपत्तराम् । स्वयं त्वासत्तिमः स्वामी स्वस्थ बन्धविमोक्षयोः॥३७॥ अन्वयार्थ : - ( असौ) जीवंधर कुमार ( रक्षितान् ) प्राणोंसे बचे हुए ( अनेक पानू ) हाथियों को ( वीक्ष्य) देख कर ( अतृपत्तराम् ) अत्यंत संतुष्ट हुए । किंतु स्वयं तु ) अपने आप तो स्वामी) जीवंधर स्वामी (स्वस्य बन्धविमोक्षयोः) अपने फंस जाने और उससे बच जानेमें (समः) विषाद व हर्ष रहित (आनीत् थे ॥ ३= ॥ संपदापये स्वेषां समभावा हि सज्जनाः । परेषां तु प्रसन्नाश्च विपन्नाश्च निसर्गतः ॥ ३८ ॥ , अन्वयार्थः - हि) निश्चयसे (सज्जनाः) सज्जन पुरुष (स्वेषां संपदापये) अपनी सम्पत्ति और विपत्ति में (समभावाः) ध्यस्थ भाववाले (भवन्ति) होते हैं । अर्थात् न तो सम्पत्ति मिलने पर हर्ष होता है और न विपत्ति आने पर शोक होता है || (तु) किंतु ( परेषां ) दूसरोंकी सम्पत्ति और विपत्ति कालमें (निर्गतः ) स्वभाबसे ही (प्रसन्नाश्च विपन्नाश्च भवन्ति) वे सुखी और दुखी होते हैं ॥ ३८ ॥ ११३
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy