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________________ १७४ अष्टमो लम्बः। अन्वयार्थः- ( श्वशुर रूद्धः अपि ) सुसुरके रोकने पर भी (स्वामी ) जीवंधर स्वामी ( गोमोचनकृते ) गौओंके छुड़ाने के लिये ( ययौ ) चले गये । अत्र नीतिः । ( हि ) निश्चयसे जब ( अशक्तैः ) असमर्थ पुरुषोंसे भी ( पराभवः ) तिरस्कार ( नसोढव्यः ) सहन नहीं होता है । ( शक्तैः ) समर्थ पुरुषोंका तो ( किं पुनः वक्तव्यं ) फिर वहना ही क्या है अर्थात् वह तिरस्कार कैसे सहन कर सकते हैं कभी भी नहीं ॥ २९ ॥ दस्यवोऽपि गवां तत्र मित्राण्येवाभवन्विभोः । एधोगवेषिभिर्भाग्ये रत्नं चापि हि लभ्यते ॥ ३० ॥ ___अन्वयार्थः- ( तत्र ) वहां ( गवां दस्यवः अपि ) गौओंके पकड़नेवाले भी ( विभोः ) जीवंधर स्वामीके ( मित्राणि एव ) मित्र ही (अभवम् ) बन गये । अत्रनीतिः । ( हि ) निश्चयसे ( भाग्ये सति ) भाग्यके उदय होने पर ( एधोगवेषिभिः अपि ) लकड़ी ढूंढ़नेवालोंको भी (रत्नं च ) रत्न ( लभ्यते ) मिल जाता है ॥ ३० ॥ समोऽभूत्स्वामिमित्रेषु स्नेहश्चान्योन्यवीक्षणात् । एककोटिगतस्नेहो जडानां खलु चेष्टितम् ॥ ३१॥ ___अन्वयार्थ:--( अन्योन्यवीक्षणातू ) परस्पर एक दूसरेको देखनेसे ( स्वामिमित्रेषु ) जीवंधर स्वामी और स्वामीके इन मित्रोमें ( समः ) एक सरीखा ( स्नेहः ) प्रेम ( अभूत् ) उत्पन्न हो गया । अत्र नीतिः । (खलु) निश्चयसे ( एककोटिगतस्नेहः) एक कोटिको प्राप्त स्नेह अर्थात् एकङ्गी प्रीति (जड़ानां ) मूर्योकी
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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