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क्षत्रचूड़ामणिः ।
१७३ कुमारके छोटे भाई नंदाढ्यको (भृशम् आसस्युः) आकर चारों तरफसे घेर लिया । अत्र नीतिः ! (हि ) निश्रयसे ( चेत् ) यदि (अवचिता) अकृत्रिम निष्कपट (बन्धुता स्यात ) सची बंधुता होवे तो (बन्धोः) बंधुके भी (बंधौ) बंधुमें (बंध: स्यात् ) प्रेम हो जाता है ।। २६ ।।
अवस्कन्दाङ्गवां गोपा अथाक्रोशन्नृपाङ्गणे । पीडायां तु भृशं जीवा अपेक्षन्ते हि रक्षकान् ॥६७॥ अन्वयार्थः -- (अ) इसके अनंतर (गोपाः) बहुतसे ग्वालिये ( गवां अवस्कंदात् ) गौओंके पकड़े जानेसे (नृपाङ्गणे) राजाके अङ्गमें (आगत्य ) आकर (अक्रोशन् ) रोने चिल्लाने लगे । अत्र नीतिः ! ( हि ) निश्चय से ( भृशम् ) अत्यन्त ( पीड़ायां ) पीड़ा होने पर ( जीवाः ) प्राणी ( रक्षकान् ) अपनी रक्षा करनेवालोंकी (अपेक्षते ) अपेक्षा आशा किया करते हैं ॥ २७ ॥ सानुक्रोशं तदाक्रोशं क्षमाधीशो न चक्षमे । पातापायान्न चेत्पायात्कुतो लोकव्यवस्थितिः ॥ २८ ॥ अन्वयार्थः-~~~( क्षमाधीशः ) राजा ( सानुक्रोश ) करुणाको पैदा करनेवाला ( तदाक्रोश ) उनका रोना ( न चक्षमे ) सहन नहीं कर सका ( चेत् ) यदि ( पातापायात् ) पतन रूपी विनाशसे ( न पायात् ) प्रजाकी रक्षा न की जाय तो ( लोकव्यवस्थिति: कुतः स्यात् ) फिर संसार में राज्य और प्रजा की व्यवस्था कैसे रह सकती है ॥ २८ ॥
स्वामी श्वशुररुडोऽपि गोमोचनकृते ययौ । पराभवो न सोढव्योऽशक्तैः शक्तैस्तु किं पुनः ॥ २९ ॥