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________________ ९९ क्षत्रचूड़ामणिः । पितरावेतदाकण्ये मुमुदातेमृशं पुनः । दुर्लभो हि वरो लोके योग्यो भाग्यसमन्वितः॥४४॥ अन्वयार्थः-(पुनः) फिर (पितरौ) गुणमालाके मातापिता (एतद् आकर्ण्य) यह बात सुनकर (भृशं मुमुदाते) अत्यन्त प्रसन्न हुये (अत्र नीतिः) (हि) निश्चयसे ( लोके ) इस संसारमें (भाग्य समन्वितः) भाग्यवान् (योग्यः वरः) उत्तम वरका मिलना (दुर्लभः) अत्यंत दुर्लभ है ॥ ४४ ॥ अथामुष्यायमाणौ कौचिन्नीतो गन्धोत्कटान्तिकम् । न हि नीचमनोवृत्तिरेकरूपास्थिता भवेत् ॥ ४५ ॥" ___ अन्वयार्थ:-(अथ) इसके अनन्तर (अमुष्यायमाणौ कौचित) प्रसिद्ध कोई दो पुरुष (गन्धोत्कटान्तिकं नीतौ) गन्धोत्कटके समीप गये अर्थात् उन्होंने जीवंधर गुणमालाकी प्रीतिको अनुचित बतला कर चुगली खाई । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (नीच मनोवृत्तिः) नीच मनुष्यके मनकी वृत्ति ( एकरूपा ) हमेशा एकसी ( न स्थिता) स्थित नहीं रहती है ॥ ४५ ॥ अनुमेने तयोर्वाक्यं श्रुत्वा गन्धोत्कटोऽपि सः । अदोषोपहतोऽप्यर्थः परोक्त्या नैव दृष्यते ॥ ४६ ॥ ____ अन्वयार्थ ( सः गन्धोत्कटः अपि ) उस गन्धात्कटने भी (तपोर्वाक्यं श्रुत्वा) उन दोनों पुरुषों के वचन सुनकर (अनुमेने) अनुमति दी अर्थात् उल्टी जीवंधर और गुणमालाकी प्रोतिकी प्रशंसा की। अत्र नीतिः (हि) निश्च पसे (अदोषोपहतः अपि)
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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