SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थो लम्बः । अन्वयार्थः - ( कुमारः अपि ) जीवंधर कुमार भी (इति आशिषा) इस प्रकार के आशीर्वाद से और (तत् संदेशात् च ) उसतोते के संदेश से (पिप्रिये ) अत्यन्त प्रसन्न हुए । अत्र नीतिः) (हि) निश्चय से (इष्ट स्थाने सती वृष्टिः ) इच्छित स्थानमें उत्तम वृष्टि (विशेषतः) अधिकतासे ( तुष्टये भवति ) प्रसन्नता के लिये होती है ॥ ४१ ॥ ९८ प्रतिसन्देशमप्येष कीराय प्रत्यपादयत् । प्रेक्षावन्तो वितन्वन्ति न ह्युपेक्षामपेक्षिते ॥ ४२ ॥ अन्वयार्थः—( एषः ) इन जीवधर कुमारने ( कीराय ) उस तोते के लिये ( प्रति संदेश अपि ) संदेशका प्रत्युत्तर भी ( प्रत्य - पादयत् ) दिया । अत्र नीतिः (हि) निश्वयसे ( प्रेक्षावन्तः ) बुद्धिमान पुरुष (अपेक्षते वस्तुनि ) अपेक्षित वस्तुमें (उपेक्षां न वितन्वन्ति) उपेक्षा नहीं करते हैं ॥ ४२ ॥ अर्थात् जो अपनेको चाहते हैं उसका तिरस्कार नहीं करते हैं ॥ ४२ ॥ मुमुदे गुणमालापि दृष्ट पत्रेण पत्रिणम् । स्वस्यैव सफलों यत्नः प्रीतये हि विशेषतः ॥ ४३ ॥ अन्वयार्थः -- ( गुणमाला अपि) गुणमाला भी ( पत्रिणम् ) तोतेको ( पत्रेण सह दृष्ट्वा ) पत्र सहित देखकर ( मुमुदे ) अत्यन्त प्रसन्न हुई अत्र नीति: ( हि ) निश्चय से ( स्वस्य एव यत्नः ) अपना किया हुआ ही यत्न ( सफलं ) सफल होने पर (विशेषतः ) अधिकतर ( प्रीतये भवति) प्रीतिदायक होता है ॥ ४३ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy