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________________ प्रथमोलम्बः । अन्वयार्थः-(तु) तदनन्तर (देवता) देवीने (ऊर्णादि दर्शनोद्भुतैः) भोंके मध्यमें वालोंके ऊपर भौरी इत्यादिक अनेक चिन्ह दिखाकर (जातमाहात्म्यवर्णनै) बालकका माहात्म्य वर्णन करके (तां देवीं समाश्वास्य) उस रानीको विश्वास दिलाकर (इति अवोचत) इस प्रकार कहा ॥ ९१ ॥ पुत्राभिवर्धनोपाये देवि चिन्ता निवर्यताम् । क्षत्रपुत्रोचितं कश्चिदेनं संवर्धयिष्यति ॥ ९२ ॥ ___अन्वयार्थः- (देवि) हे देवी तू (पुत्राभिवर्धनो पाये) पुत्रकी वृद्धिके उपायमें (चिन्ता निवर्त्यताम् ) चिन्ता मत कर (कश्चित् ) कोई क्षत्रि पुत्रो चित) छत्रियोंके पुत्रोंके समान (एन) इसका (संवर्धयिष्यति) पालन पोषण करेगा ॥ ९२ ॥ इत्युक्ते कोऽपि दृष्टोऽभूदिसृष्टप्रेतसूनुकः। सुनुं सूनृतयोगीन्द्र वाक्यात्तत्र गवेषयन् ॥ ९३ ॥ ___अन्वयार्थः-(इत्युक्ते) ऐसा कहते ही (विस्टष्टप्रेतसुनकः) मसान भूमिमें रक्खा है मरे पुत्र को जिसने ऐसा और (सुनृत योगीन्द्रवाक्यात् ) सत्यार्थ मुनिके वचनसे (तत्रसूनुं गवेषयन्) वहां पर जीवित पुत्रको ढूंढ़ता हुआ (कोऽपि दृष्टः अभृत् ) कोई दिखलाई दिया ॥ ९३ ॥ तद्दर्शनेन तद्वाक्यं प्रमाणं निर्णिनाय सा । निश्चलादबिसंवादाबस्तुनो हि विनिश्चयः ॥ ९४ ॥ अन्वयार्थः-(सा) उस विनया रानीने (तदर्शन) उस सेठके देखनेसे (तद्वाक्यं) देवीके वचनोंको (प्रमाणं निर्णिनाय) ठीक प्रमाण समझा। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे निश्चलात्) (अविसंवादात्)
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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