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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । सा तु मूछीपराधीना सूतिपीडामजानती। मासि बैजनने सूनुं सुषुवे हन्त तद्दिने ॥ ८८॥ __अन्वयार्थ---(तु) तदनन्तर (हन्त) खेद है (तदिने) उसी दिन (वैजनने मासि) प्रसव मासमें (दशवें महीने में (मूर्छापराधीना सा) मूर्छाके आधीन उस रानीने (सूतपीडामजानती) प्रसूतकी पीड़ा नहीं जान कर (सूनुं सुपुवे) पुत्र नना (उत्पन्न किया)। तावता देवता काचिद्धात्रीवेषेण संन्यधात् । तत्रैव पुत्रपुण्येन पुण्ये किं वा दुरासदम् ॥ ८९ ॥ ____ अन्वयार्थः --- तावता) उसी समय (तत्रैव) वहां पर (पुत्र पुण्येन) पुत्रके पुण्यसे (काचिद् देवता) कोई देवी (धात्री वेषण) धायका वेष रखकर (संन्निधात् ) आई। अत्र नीतिः (पुण्ये किं) पुण्य रहने पर क्या ? (दुरासदम्) दुष्प्राप्य होता है (न किमपि) कुछ भी दुष्प्राप्य नहीं होता है ॥ ८९ ॥ तां पश्यन्त्या अभूत्तस्या उदलः शोकसागरः। संनिधौ हि स्वबन्धूनां दुःखमुन्मस्तकं भवत् ॥१०॥ ____ अन्वयार्थः-(तां) उसको (पश्यत्या) देख रर (तस्याः) रानीका (शोकसागरः) शोकरूपी सागर ( उद्वेलः अभूत् ) उमड़ पड़ा) और बढ गया । अत्र नीति: (हि) निश्चयसे ( स्ववंधूनां ) अपने बंधुओंके (संनिधौ) निकट होनेपर (दुःख) दुःख (उन्मस्तकं) भवेत् ) उन्मस्तक (पूर्वसे अत्यन्त अधिक) होजाता है ॥ ९ ॥ देवता तु समाश्वास्य जातमाहात्म्यवर्णनैः । ऊर्णादिदर्शनोद्भूतैर्देवी तामित्यवोचत ॥ ९१ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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