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________________ क्षत्र चूड़ामणिः । ३३ निश्चल (स्थिर) विसंवाद रहित वचनसे वस्तुनः) वस्तुका (विनिश्रयः) निश्चय होता है ॥ ९४ ॥ ततो गत्यन्तराभावादेवता प्रेरणाच्च सा । पित्रीयमुद्रयोपेत नाशास्यान्तरधात्सुतम् ॥ ९५ ॥ अन्वयार्थः ततः) तदनंतर (मा) वह रानी (गत्यतराभावात् ) और कोई उपाय न देखकर (च) और (देवता प्रेरणात् ) उस देवकी प्रेरणासे ( पित्रीय मुद्रयोपेतं ) पिताकी मुद्रासे युक्त ( सूतम् ) पुत्रको ( अशास्य) आशीर्वाद देकर (अन्तर्वान् ) छिप गई ॥ ९९ ॥ गन्धोत्कटोऽपि तं पश्यन्नात्पश्यनायकः । एधोन्वेषिजनदृष्टः किं वा न प्रीतये माणः ॥ ९६ ॥ अन्वयार्थः – (वैश्यनायकः, वैश्यों का मुखिया (गन्धोत्कटः अपि) गन्धोत्कट भी (तं) उप पुत्रको (पश्यत् ) देखकर (नातृपत् ) तृप्तताको प्राप्त नहीं हुआ। अत्र नीतिः एधोन्वेषिननैः) ईंधन ढूंढ़ने वाले मनुष्यों से (दृष्टः) देखी हुई (मणिः मणि (किंवा ) क्या (प्रोतये न भवति) प्रीतिके लिये नहीं होती है ? किन्तु (स्यादेव ) होती ही है अर्थात् छोटे मनुष्योंसे देखी हुई उत्तम वस्तु प्रीतिकर ही होती है ॥ ९६ ॥ हर्ष कण्टकिताङ्गोऽयमादधानस्तमङ्गजम् । जीवेत्याशिष प्राकर्ण्य तन्नाम समकल्पयत् ॥ ९७ ॥ अन्वयार्थः -- ( हर्ष कण्टकिताङ्गः ) हर्षसे रोमात है अङ्ग जिसका ऐसे (अयं) इस गन्धोत्कटने (तं अङ्गनं) उस पुत्रको
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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