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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । (जग्राह) गृहण की। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (सतां स्टहा) सजन पुरुषोंकी इच्छा (अयोग्ये) अयोग्य पदार्थ में ( न भवति ) नहीं होती है ।। ७४ ॥ माम मामेव पद्मास्यं पश्यति पुनरब्रवीत् । गात्रमात्रेण भिन्नं हि मित्रत्वं मित्रता भवेत् ॥७॥ ___अन्वयार्थः--(हे माम ) हे मामा ! ( मां एव ) मुझको ही (पद्मास्यं पश्य) पद्मास्य जानो ( इति पुनः अब्रवीत् ) ऐसा फिर कहता भया । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (गात्र मात्रेण भिन्न) शरीर मात्रसे भिन्न (मित्रत्वं) मित्रपना ( मित्रता भवेत् ) मित्रता कहलाती है । ७५ ॥ गोदावरीसुतां दत्ता नन्दगोपेन तुष्यता। परिणिन्येऽथ गोविन्दा पद्मास्यो वहिसाक्षिकम् ॥७६ अन्वयार्थ:---- अथ) तदनन्तर (पद्मास्यः) पद्मास्यने (तुष्यता नन्दगोपेन; संतुष्ट नन्दगोपसे (दत्तां) दी हुई ( गोदावरीसुतां) गोदावरीकी पुत्री (गोविन्दां) गोविन्दाको (वह्निसासिकम् ) अग्निकी साक्षीपूर्वक ( परिणिन्ये ) स्वीकार की ॥ ७६ ॥ इति श्रीमद्वादीभिसिंह सूरि विरचिते क्षत्राचूणामणौ सान्धयार्थो गोविन्दालम्भो नाम द्वितीयो लम्बः ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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