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________________ तृतीयो लम्बः । अथ तृतीयो लम्बः॥ अथोपयम्य गोविन्दा पद्मास्ये रमयत्यलम् । वीरश्रियं कुमारे च तत्र प्रस्तुतमुच्यते ॥१॥ अन्वयार्थः--(अथ) इसके अनन्तर (गोविन्दां) गोविन्दाको (उपयम्य) विवाह करके (पद्मास्यके) पद्मास्यके (अलं रमयति सति) अत्यन्त रमण करने पर (च) और (वीरश्रियं) वीरलक्ष्मीको (प्राप्च) प्राप्त करके (कुमारे) कुमार जीवंधरके (रमयति) रमण करने पर (तत्र) वहां ( यत् ) जो (प्रस्तुतं) वृतान्त हुआ (तद उच्यते) उसको कहते हैं ॥ १ ॥ आसीत्तत्पुरवास्तव्यो वैश्यः श्रीदत्तनामकः । वित्तायास्पृहयत्सोऽयं धनाशा कस्य नो भवेत् ॥२॥ . अन्वयार्थः -- तत्पुर वास्तव्यः) उस पुरमें रहने वाला (श्रो. दत्त नामक) श्रीदत्त नाम (वैश्य:) वैश्य (आसीत) था(सः अय) उस श्रीदत्तने (वित्ताय) धन कमानेके लिये (अस्टहत) वान्छा की। अत्र नीतिः (कस्य) किसके (धनशा) धनकी आशा ( नो भवेत् ) नहीं होती है सवको धनशा होती है ॥ २ ॥ अर्थार्जननिदानं च तत्फलं चायमोहत। निरङ्कशं हि जीवानामैहिकोपायचिन्तनम् ॥३॥ ___ अन्वयार्थः-फिर (अयं) इसने (अर्थार्जननिदान) धनके कमानेका कारण (च) और (तत्फलं) उसका फल (औहत) विचारा। अत्र नीतिः ( हि ) निश्वयसे ( जीवानां ) मनुष्योंके (ऐहिकोपाय चिन्तनम् ) इस लोक सम्बन्धी आजीवकाके उपायका चिंतबन वरना (निरङकुशं) विना उपदेशके ही हो जाता है ॥ ३ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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