SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षत्रचूड़ामणिः । २४५ कालसे प्रवृत्त ( योगमावौस्तः ) योग और आत्माके कषायादिक भाव हैं ( तौ ) और उन योग और कषायको (त्वं ) तू (स परिस्पन्दं ) आत्माके प्रदेशों में चञ्चलता सहित (शुभाशुभम् ) शुभ और अशुभ रूप ( परिणाम ) परिणाम (विद्धि ) जान । अर्थात्-आत्माके प्रदेशोंकी चंचलताको योग और शुम अशुभ रूप आत्माके परणामों को कषाय कहते हैं ॥ १६ ॥ आस्रवोऽयममुष्पेति ज्ञात्वात्मन्कर्मकारणे । तत्तन्निमित्तवैधुर्यादपवाह्योर्ध्वगो भव ॥ ५७ ॥ अन्वयार्थः- ( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! ( अमुष्य ) अमृक कर्मका ( अयं आस्रवः ) यह आस्रव है ( इति ज्ञात्वा ) इस प्रकार भलीभांति जानकर (तत्तन्निमित्त वैधुर्यात् ) तत्तत कर्मके निमित्तके त्यागनेसे (कर्मकारणे) कर्म और कारण रूप आस्त्रवको ( अपबाह्य ) छोड़कर ( ऊर्ध्वगः भव ) ऊर्धगामी हो अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर ॥ १७ ॥ ८--अथ संवरानुप्रेक्षा। संरक्ष्य समितिं गुप्तिमनुप्रेक्षापरायणः । तपःसंयमधर्मात्मा त्वं स्या जितपरीषहः ॥५८॥ अन्वयार्थः- ( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! ( अनुप्रेक्षापरायणः) बारह भावनाओंमें तत्पर (त्वं) तू (ता:संयमधर्मात्मा) तप संयम और धर्म रूप होकर ( समिति गुप्तिं ) समिति और गुप्तियोंका (संरक्ष्य) पालन करता हुआ (जितपरीषहः) बाईस २२ परीषहों का जीतनेवाला ( स्याः ) हो ।.५८।
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy