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________________ क्षत्रचूड़ामणिः। वारि हंस इव क्षीरं सारं गृह्णाति सज्जनः।। यथाश्रुतं यथारुच्यं शोच्यानां हि कृतिर्मता ॥१८॥ ___ अन्वयार्थः- (सजनः) सजन पुरुष (वारि क्षीरं हंस इव ) जलमेंसे दूध गृहण करनेवाले हंसके सदृश (सारं) सार वस्तुका (गृह्णाति) गृहण कर लेते हैं । (हि) निश्चयसे (शोच्यानां कृतिः) शोचनीय दुष्ट पुरुषोंके कार्य ( यथारुच्यं यथा श्रुतं मता ) रुचि और सुननेके अनूकुल हुआ करते हैं ॥ १८ ॥ हेत्वन्तरकृतोपेक्षे गुणदोषप्रवर्तिते । स्यातामादानहाने चेतद्धि सौजन्यलक्षणम् ॥१९॥ ___ अन्वयार्थ---( चेत् ) यदि ( हेत्वंतर कृतोपेक्षे ) दूसरे हेतु पर अपेक्षा रहित (गुणदोष प्रवर्तिते ) केवल गुण और दोषसे प्रवर्तित ‘आदानहाने स्याताम् ) किसी वस्तुका ग्रहण और त्याग होवे तो हि) निश्चयसे (तत् सौजन्य लक्षणम्) वह ही सुजनताका लक्षण है ॥ १९ । युक्तायुक्तवितर्केऽपि तर्करूढविधावपि । पराङ्मुखात्फलं किं वा वैदुष्यादैभवादपि ॥ २० ॥ __अन्वयार्थः-(युक्तायुक्त वितर्के अपि, योग्य और अयोग्यके विचारकी वितर्कना होनेपर भी (तर्क रूढ विधौ अपि) तर्क सिद्ध उचितकार्य निश्चित हो ज ने पर भी (पराङ्मुखात् वैदुष्यात् ) उससे विमुख विद्वत्ता और (बैभवात् अपि) ऐश्वर्य (प्रभुना) पनेसे (किंवा फलं) क्या फल है । अर्थात् युक्त अयुक्त कार्यके निश्चय कर लेने पर भी यदि उसको न करे तो ऐसे पाण्डित्य और ऐश्वर्य होनेसे क्या लाभ ? ॥ २० ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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