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________________ पञ्चमो लम्बः । सचेतन आत्माओं को अपने उपकारीका प्रत्युपकार अवश्य ही करना चाहिये ॥ १ 11 अतिमात्रशुचा लोकः पुनरेवमचिन्तयत् । गुणज्ञो लोक इत्येषा किंवदन्ती हि सुन्नृतम् ॥ १५ ॥ अन्वयार्थ : - ( पुनः ) फिर ( लोकः ) प्रजाके लोगोंने ( अतिमात्रशुचा ) अत्यन्त शोकसे ( एवं अचिन्तयत् ) इस प्रकार विचार किया || नोट: - ( लोक: गुणज्ञः इति) लोग गुणोंके जानने वाले होते हैं ? || ( एषा किंवदन्ती ) यह किंबदन्ती ( लोकिक कहावत ) ( सूनृतम् ) बिलकुल सत्य है ।। १५ । अतिलोकमिदं शाठ्यं काष्टाङ्गारस्य दुर्मतेः । एतावदेव शास्वामिद्रोहादबिभ्यतः ॥ १६॥ अन्वयार्थ : - (दुर्मतेः ) दुष्टबुद्धि ( काष्टाङ्गारस्य) काष्टाङ्गारकी (इदं शाळां ) यह शठता ( अदिलोकं ) लोकको भी उल्लंघन कर गई अथवा ( स्वामिद्रोहात् अविभ्यतः ) राज देनेवाले स्वामी के दोहसे नहीं डरनेवालेके ( एतावदेव शाठ्यं किं ) इतनी शठता क्या चीज है ॥ १६ ॥ समवर्त्यपि दुर्वृत्तिरासीदणक भूपवत् । न सारतया हन्त सोऽपि गृह्णाति दुर्जनान् ॥ १७ ॥ अन्वयार्थ ः—– (हन्त) खेद है ! ( समवर्ती अपि ) सबके साथ एका वर्ताव करनेवाला यमराज भी ( अणकभूपवत् ) दुष्ट राजाके सदृश (दुर्वृत्तिः आसीत् ) दुराचारी हो गया । (हि) निश्रयसे (सः) अपि) वह भी ( अतारतया ) निःसार समझकर ( दुर्जनान् न गृह्णाति ) दुर्जनोंको गृहण नहीं करता ॥ १७ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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