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________________ १२३ · क्षत्रचूड़ामणिः । होती है । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (भुवि) संसारमें (कार्यपराचीनः) कार्यसे पराङ्मुख पुरुष ( कारणं न भृग्यते ) कारणकी खोज नहीं करते ॥ ____. अर्थात्-जिन्हें कोई सांसारिक कार्य करना ही नहीं है वे उनके हेतु आरंभादिक कार्य क्यों करेंगे ।। १५ ॥ नैन्थ्यं हि तपोऽन्यत्तु संसारस्यैव साधनम् । मुमुक्षूणां हि कायोऽपि हेयः किमपरं पुनः ॥ १६ ॥ अन्वायार्थः-(हि) निश्चयसे (नैर्ग्रन्थ्यं तपः) बाहयाभ्यंतर परिग्रह रहित मुनिवृत्ति ही वास्तविक तप है ( अन्यत् ) इसके अतिरिक्त तप (तु) तो ( संसारस्यैव साधनम् ) जन्म मरणरूप संसारका ही साधक है । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (मुमुक्षुणां) मोक्षके चाहनेवाले पुरुषोंको (कायः अपि) शरीर भी (हेयः) छोड़ने योग्य है (अपरं पुनः किं वक्तव्यं) और विषयका तो फिर कहना ही क्या है ॥ १६ ॥ ग्रन्थानुबन्धी संसारस्तेनैव न परिक्षयी। रक्तेन दूषितं वस्त्रं न हि रक्तंन शुध्यति ॥ १७ ॥ ___अन्वयार्थः-( ग्रन्थानुबन्धी संसारः ) रागद्वेषादि परिग्रह कारण ही संसार है (तेन एव न परिक्षयी भवति) इसलिये उस परिग्रह ही से उसका नाश नहीं हो सकता अर्थात् परिग्रहसे संसारकी ही वृद्धि होती, मोक्षकी प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (रक्तन) रुधिरसे ( दूषितं वस्त्रं ) मैला वस्त्र (रक्तेन न शुध्यति) रुधिरसे ही शुद्ध नहीं हो सकता ॥१७॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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