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६ श्री जीवंधर स्वामीका संक्षिप्त जीवन चरित्र ।
द्वितीय लम्ब। फिर जीवंधरके बड़े हो जाने पर गन्धोत्कटने विद्या पढ़ाने के लिये उनको पाठशालामें विठलाया भाग्यवश सम्पूर्ण विद्याओंके पारगामी आर्यनन्दी नामके मुनि उ के गुरु हुए उनसे विद्या पढ़कर ये संपूर्ण विद्याओं में अतीव निपुण हो गया तब गुरुने शिष्यको सम्पूर्ण विद्याओंमें निपुण देखकर अपना सारा वृतांत्त कह सुनाया " अर्थात् मैं लोकपाल नामका विद्याधर राना था मैंने मेघके मिमित्तसे संसारकी अनित्यता जानकर मुनिवृत्ति धारण करली थी । पश्चात तपश्चरण करते हुए पापकर्मके उदयसे मुझे भस्मकारव्य नामक रोग उत्पन्न हो गया इस रोगसे पीड़ित मैं मुनिवृत्तिको त्यागकर पाखंडी वेष धारण कर क्षुधाकी निवृत्ति करनेके लिये इधर उधर घूमने लगा। दैवयोगसे एक दिन भोजन करनेके समय मैं तुम्हारे रहनेके घरमें गया वहां पर तुमने मुझे अतीव वुभुक्षित जानकर अपने रसोइयेको आज्ञा दी कि इनको पेटभर भोजन कराओ किन्तु मेरे रोगकी उत्कटतासे तुम्हारे गृहमें परिपक्व भोजन मेरी क्षुधाको शान्त नहीं कर सका इससे आश्चर्य युक्त होकर भोजन करनेके लिये उद्युक्त तुमने अपने खानेके मोदकको मेरे हाथमें रख दिया उस समय तुम्हारे पुण्यमय हाथोंके स्पर्शसे वह मोदक मेरी क्षुधाकी निवृत्तिका कारण हुआ तब मैंने सोचा कि मैं इस महान उपकारीका क्या उपकार करूं अन्तमें मैंने विद्या प्रदान करना ही निश्चय किया फिर मैंने तुमको विद्या पढाकर विद्वान बना दिया " वृतान्तके कथनान्तर तपश्चरणके