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________________ एकादशो लम्बः । अन्वयार्थः -- ( हे आत्मन् !) हे आत्मन् ! (अनुत्रत्वात्) अनित्य ( अमेध्यत्वात् ) अपवित्र और ( अचित्तत्वात् ) चेतना रहित इन तीन कारणों से ( अङ्गकम् ) शरीर ( अन्यत् ) आत्मा से भिन्न है और (चित्त्वनित्यत्वमेध्यत्वैः ) सचेतन नित्य पवित्र होनेके कारण ( त्वं ) तू ( कायतः अन्यः असि ) शरीर से भिन्न है ॥ ४८ ॥ ये स्वयं सती बुद्धिर्यत्नेनाप्यसती शुभे । तद्धेतुकर्म तदन्तमात्मानमपि साधयेत् ॥ ४९ ॥ अन्वयार्थ : - (बुद्धिः) बुद्धि (हेये) बुरे कामों में (स्वयं सती ) अपने आप ही लग जाती है किन्तु ( शुभे यत्नेनापि अपनी ) अच्छे कामों में प्रयत्न करने पर भी प्रवृत्त नहीं होती (तद हेतुः ) उस प्रवृत्तिसे बंधनेवाला (कर्म) कर्म ही (आत्मानं अपि ) अस्माको भी ( तन्तं साधयेत् ) वैसा ही कर देता है ॥ ४९ ॥ ६ - अथाशुचित्वानुप्रेक्षा । २४२ मेध्यानामपि वस्तूनां यत्संपर्कामध्यता । तामशुचीत्येतत्किं नाल्पमल संभवम् ॥ ५० ॥ अन्वयार्थ - ( यत्संपर्काद् ) जिसके संबंध से ( मेध्यानाम् ) पवित्र ( वस्तूनां अपि ) वस्तुएँ भी ( अमेध्यता ) अपवित्र हो जातीं हैं और जो ( अल्प मलसंभवम् ) अनेक रुधिर वीर्यादि मलसे उत्पन्न हुआ है (इति) इसलिये ( एतद् ) यह (किं) क्या ( अशुचिः न ) अपवित्र नहीं है अवश्यही अपवित्र है ॥ ५० ॥ अस्पष्टं दृष्टमङ्गं हि सामर्थ्यात्कर्मशिल्पिनः । रम्पमूहे किमन्यत्स्यान्मलमांसास्थिमज्जतः ॥ ५१ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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