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________________ १३२ षष्ठो लम्बः । नाम्नागेहिनी अस्ति ) निवृत्ति नामकी उसकी स्त्री है। (तयोः क्षेमश्री इति नाम्ना पुत्री अभूत ) और उन दोंनोंके क्षेमश्री नामकी पुत्री है ॥ ४२ ॥ जन्मलग्ने च दैवज्ञास्तत्पति तमजीगणन् । स्वयंविघटिलद्वारो येनायं स्याजिनालयः ॥ ४३ ॥ ___अन्वयार्थः- (दैवज्ञाः ) ज्योतिषियोंने ( जन्मलग्ने ) इस कन्याके जन्म लग्नमें " ( येन ) जिस पुरुषके निमित्तसे ( अयं जिनालयः ) यह निन मन्दिर ( स्वयंविधटितद्वारः स्यात् ) स्वयं खुले हुए द्वारवाला हो जावेगा (तं तत्पतिं ) वही उसका पति होगा" ( इति अजीगणन् : ऐसा निश्चय किया है ॥ ४ ३ ॥ तत्परीक्षाकृतेऽत्रैव गुणभद्रसमाह्वयः । प्रेष्योऽई प्ररितस्तिष्ठन्भवन्तं दृष्टवानिति ॥ ४४ ॥ ___अन्वयार्थः- (तत्परीक्षा कते ) उस पुरुषको परीक्षा करनेके लिये (प्रे रतः ) भेना हुआ गुणभद्रसमायः प्रेप्यः अहं) गुणभद्र नामके कि मैंने (अत्रैवातेष्टम् ) यहां पर ठहरे हुए ( भवन्तं आपको ( दृष्टवान् ) देखा । (इति ऐसा जीवंधर स्वामीको उसने उत्तर दिया ॥ १४ ॥ इत्युक्त्वा स पुन त्या गल्या सत्वरमात्मनः। स्वामिने स्वाभिवृत्तान्तममन्दप्रीतिरब्रवीत् ॥ ४५ ॥ अन्वयार्थः--(सः ) उस गुणभद्रने (इति उक्त्वा) यह कह करके और ( पुनः नत्वा ) नमस्कार कर ( आत्मनः स्वामिने) अपने मालिकके पास (सत्वरं गत्या) शीघ्र जाकर (अमन्द प्रीतिः) अत्यन्त प्रीति पूर्वक (स्वामिवृत्तान्तं अब्रवीत् ) स्वामीका वृत्तांत कहा ।। ४५ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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