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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । .. अन्वयार्थः-(तत्र) उस आयुध शालामें (तद् वपुः) उन जीवंधरस्वामीका शरीर ( तन्मनोवृत्तेः ) उनके मनके व्यापारसे प्राग् एव) पहले ही (प्रययौ) नंदाबके प्रेमके कारण पहुंच गया। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (आस्थायां सत्यां) किसी वस्तुकी आस्था रहने पर (यत्नं बिना) विना यत्नके भी ( वाकायचेष्टितम्) बचन और शरीरकी चेष्टा (अस्ति) हो जाती है ॥ ९ ॥ गत्वा तत्र च नन्दाडयं पश्यन्संमदसादभूत् । भ्रातुर्विलोकनं प्रीत्यै विप्रयुक्तस्य किं पुनः ॥ १०॥ ___अन्वयार्थ:--( तत्र च गत्वा ) और वहां जाकर जीवंधर स्वामी (नंदाढ्यं) नंदाढ्यको ( पश्य ) देख ( संमदसात् अभूत् ) अत्यन्त प्रसन्न हुए। अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (भ्रातुः) भाईका (विलोकन) देखना ही (प्रीत्यै) प्रीतिके लिये (भवति) होता है (विप्रयुक्तस्य) विछड़े हुएका तो (किं पुनः वक्तव्यं) फिर कहना ही क्या है । अर्थात् विछड़े हुए भाईका मिलना अत्यन्त हर्षका करनेवाला होता है ॥ १० ॥ अनुजोऽपि तमालोक्य मुमुचे दुःखप्तागरात् । विस्मृतं हि चिरं भुक्तं दुःखं स्यात्सुखलाभतः ॥११॥ अन्वयार्थः- (अनुजः अपि) छोटा भाई भी (तं) उन जीवंधर अपने बड़े भाईको (आलोक्य) देखकर ( दुःखसागरात् ) दुःख रूपी समुद्रसे (मुमुचे ) पार होगया । अब नीतिः । (हि) निश्चयसे ( चिरमुक्तं ) चिरकाल तक भोग किये हुए (दुःख) दुःखका ( सुखलाभतः ) सुख मिलनेके अनंतर (विस्मृतं) विस्मरण (स्यात् ) होजाता है ॥ ११ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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