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________________ २०० नवमो लम्बः । (हि) निश्चयसे ( मनीषितानुकूलं ) इष्ट मनोरथके अनुकूल कहना ही (प्राणिनां मनः) जीवों के मनको ( प्रीणयेत् ) प्रसन्न करता है । मनीषितं च हस्तस्थं मेने सा सुरमञ्जरी । मनोरथेन तृप्तानां मूलब्धौ तु किं पुनः ॥ ३० ॥ अन्वयार्थः तत्र फिर ( सा सुरमञ्जरी) उस सुरमञ्जरीने ( मनीषितम् ) अपने मनोरथको ( हस्तस्थं ) अपने हाथमें आया हुआ (मेने ) समझा । अत्र नीतिः । (हि) निश्चय से ( मनोरथेन तृप्तानां ) मनोरथ से संतुष्ट हो जानेवाले पुरुषोंको ( मूललब्धौ ) यदि मूल पदार्थ मिल जाय (तु) तो ( पुनः ) फिर ( किं वक्तव्यं ) कहना ही क्या है ॥ ३० ॥ अनैषोत्तमसौ पश्चात्कामकोष्ठं यथेप्सितम् । विचाररूढकृत्यानां व्यभिचारः कुतो भवेत् ॥ ३१ ॥ अन्वयार्थः—( पश्चात् ) फिर (असौ ) यह बूढा ब्राह्मण ( यथेप्सितम् ) निश्चित किये हुए ( कामकोष्ठ ) कामदेव के मन्दिर (तां ) उसको ( अनैषीत् ) ले गया । अत्र नीति: । (हि) निश्चयसे ( विचार रूढ़ कृत्यानां ) विचारपूर्वक कार्य करनेवाले पुरुषोंके ( व्यभिचारः ) कार्य में हानि ( कुतः ) कैसे ( भवेत् ) हो सकती है ॥ ३१ ॥ कामं सा प्रार्थयामास जीवकस्वामिकाम्यया । जन्मान्तरानुबन्धौ हि रागद्वेषौ न नश्यतः ॥ ३२॥ अन्वयार्थ :- वहां (सा) उस कुमारीने (जीवक स्वामिकाम्यया) जीवंधर स्वामीकी प्राप्ति होनेकी इच्छा से (कामं) कामदेवसे ( प्रार्थ
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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