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________________ १० प्रथमोलम्बः । इतीशवाक्यं शुश्रूषी महिषी भुवि पेतुषी । मूच्छितातन्मुखग्लानेव वक्ति हि मानसम् ॥ २७॥ अन्वयार्थ : - ( इति ) इस प्रकार ( ईश वाक्यं ) स्वमीके वाक्योंको (शुश्रूषा) सुनहर (महिषी) पट्टरानी (तन्मुखर छानेः) उसके मुखकी मलिनता देखने से (भुवि ) पृथ्वी पर (पेतुषी) गिरकर ( मूच्छिता) मूच्छित (आमित्) होती भई । अत्र नोतिः (हि) निश्चय से ( वक्त्र) मुख ( मानसम् ) मनके भावका ( वक्ति ) कह देता है ॥ २७ ॥ तन्मोहान्मोहिनो राजा तामेवायमधू बुधत् । सत्यामप्यभिषङ्गात्तौ जागयैवहि पौरुषम् ||२८|| अन्वयार्थः -- ( तन्मोद्दात् ) इसके मोह से (मोहितः ) मोहित (अ) यह (राजा) राजा (तां एव) उस रानीको ही ( अबूबुधत् ) सचेत करता भया अत्रनीति: (हि) निश्चयसे (अभिपङ्गात) अक स्माद्देवादिजन्य पीड़ा (सत्यां अपि) होनेपर भी ( पौरुषम् ) पुरषत्व ( जागर्देव) जागृत ही रहता है || स्वप्नदृष्ट कृते सो नष्टासुं किं तनोषिनाम् । नहि रक्षितुमिच्छतो निर्दहन्ति फलमम् ॥२९॥ (F अन्वयार्थ :- हे देवी (स्वप्नदृष्ट कृते) स्वप्न देखने ही से (किं) क्यों (माम्) मुझको (मद्यः) तत्काल (नष्टासुं) मरा हुआ ( तनोषि) समझती है अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे फलदुनम् ) फलवाले " वृक्षको ( रक्षितुं इच्छन्तः) रक्षा करने की इच्छावाले पुरुष (तं) उसको ( न निर्दहन्ति) नहीं जला देते हैं ॥ २९ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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