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________________ द्वितीयो लम्बः। तत्त्वज्ञानजलेनाथ शोकाग्निं निरवापयत्। शैत्ये जाग्रति किं नु स्यादातपातिः कदाचन ॥३०॥ अन्वयार्थः--(अथ) तदनन्तर जीवंधरने (तत्वज्ञाननलेन) तत्वज्ञान रूपी जलसे (शोकाग्नि) गुरुवियोगजन्य शोकरूपी अनिको ( निरवापयत् ) निवारण किया (शैत्ये जागृति) शीतपनेके जागृत होने पर (ठंड रहने पर) (किं) क्या ( आतपातिः ) गर्मीके आतापका दुःख ( कदाचन स्यात् ) कमी हो सकता है ? कदापि नहीं ॥ ६०॥ अथास्मिन्विद्यया कान्त्या विदुषां योषितां हृदि । रथे च योग्यया भाति तत्र प्रस्तुतमुच्यते ॥३१॥ अन्वयार्थः-(अथ) गुरुके वियोगके अनन्तर (विद्यया ) पाण्डित्यतासे (विदुषां) विद्वानोंके (हृदि) हृदयमें और (कान्त्या शरीरकी सौन्दर्यतासे ( योषितां हृदि ) स्त्रियोंके हृदयमें और योग्यतया) शस्त्रसंचालन योग्यतासे ( रथे च ) रथमें (अस्मिन् भाति ) इस जीवंधरको शोभायमान होनेपर (तत्र प्रस्तुतं उच्यते) जो वृत्तान्त हुआ उसे कहते हैं ॥ ११ ॥ अथैकदा समभ्येत्य राजाङ्गणभुवि स्थिताः । गावोऽवस्कन्दिता व्याधैरिति गोपा हि चुक्रुशुः॥६२॥ ___अन्वयार्थः-(अथ) इसके अनन्तर ( एकदा ) एक समय " हमारी (गाव:) गायें (व्याधैः अवस्कन्दिता) व्याधोंने वनमें रोकलीं हैं " (इति) ऐसा (गोपाः) ग्वालिये (राजाङ्गणभूवि स्थिताः) राजद्वारके अङ्गणमें स्थित होकर (चक्रुशुः) चिल्लाये ॥१२॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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