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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । ११५ __ अन्वयार्थः—(ततः) तदनंतर ( क्रमात् ) क्रमसे (पल्लवदेशस्थां) पल्लवदेशमें स्थित ( चन्द्रामाख्यां पुरी) चन्द्राभा नामकी पुरीको इन जीवंधर स्वामीने ( शुभनिमित्तेन ) शुभ निमित्तसे (भेजे) प्राप्त की । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (भाविनः) होनेवाली बात ( सनिमित्ताः भवन्ति ) अवश्य कुछ न कुछ निमित्त वाली होती है ॥ ४२ ॥ राज्ञो धनपतेः पुत्रीमहिदष्टामजीवजत् । निर्हेतुकान्यरक्षा हि सतां नैसर्गिको गुणः ॥ ४३ ॥ ___अन्वयार्थ:---वहां चन्द्रमा नामकी पुरीमें उन ज वंधर कुमारने ( अहिदृष्टां ) सांपसे डसी हुई ( राज्ञः धनपतेः ) राजा धनपतिकी (पुत्री) पुत्रीको ( अनोवयम् ) जीवदान दिया । अत्रनोतिः (हि) निश्चयसे (निर्हेतुका) विना प्रयोजनके ( अन्यरक्षा ) दूसरों की रक्षा करना ही (सतां) सज्जन पुरुषों का (नैसर्गिकः गुण) स्वाभाविक गुण है ॥ १३ ॥ लोकपालस्तदालोक्य तज्ज्जेष्ठस्तमपूजयत् । प्रागप्रदायिनामन्या न ह्यस्ति प्रत्युपक्रिया ॥ ४४॥ - अन्वय र्थः- ( तज्ज्येष्ठः लोकपालः ) उस पुत्रीके बड़े भाई लोकपालने ( तद आलोक्य ) यह देखकर (तं असून यत् ) स्वामीको पूना को अत्रनीति हि) निश्चयसे ( प्राणप्रदायिनां ) प्राणों को बचानेवाले पुरुषोंका ( अल्या प्रत्युपक्रियान ) पूजाको छोड़कर दूसरा प्रत्युपकार नहीं है ॥ ४४ ॥ पूज्या अपि स्वयं सन्तः सज्जनानां हि पूजकाः। पूज्यत्वं नाम किं नु स्यात्पूज्यपूजाव्यतिक्रमे ॥४५॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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