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________________ प्रथमोलम्बः । हृदयं च न विश्वास्यं राजभिः किं परो नरः। किन्तु विश्वस्तवद्दश्यो नटायन्ते हि भूभुजः ॥१५॥ अन्वयार्थः-(राजभिः) रागालोग (हृदयं) हृदयका (च) भी (न विश्वास्य) विश्वास नहीं करते हैं (परोनरः किं विश्वास्यः) दूसरे मनुष्यका तो क्या विश्वास करेंगे किन्तु (परो नरः) दूसरे मनुष्यको (विश्वस्तवत् ) विश्वासीके सदृश ( दृश्यः ) देखना चाहिये अत्र नीतिः ( हि) निश्चयसे ( भूभुनः ) राजा लोग (नटायन्ते) नटके समान आचरण करते हैं !! १५ ।। परस्पराविरोधन त्रिवों याद मेव्यते । अनर्गलमतः सौख्यं अपवर्गोप्यनुक्रमात् ॥ १६ ॥ अन्वयार्थ:--(यदि) अगर परस्परा विरोधेन) एक दूसरेके विरोधके विना (त्रिवर्गः) धर्म, अर्थ, काम यह तीन वर्ग (सेव्यते) सेवन किये जाते हैं (अतः) तो (अनर्गल) विना रुकावटके (सौख्यं सुख (भवति) होता है और ( अनुक्रमात् ) अनुक्रमसे (अपवर्गः) मोक्ष (अपि) भी (भवति) होता है ॥१६॥ ततस्त्याज्यौ न धर्मार्थी राजभिः सुखकाम्यया। अदः काम्यति देव वेदमूलस्य कुतः सुखम् ॥ १७ ॥ अन्वयार्थः--(ततः इस लिये (राजभिः) राजाओंको (सुखकाम्यया) सुख प्राप्त करनेकी वाञ्छासे (धर्मार्थी) धर्म और अर्थको (न) नहीं (त्याज्यौ छोड़ना चाहिये (चेदेवः) यदि आप (अदः) काम सुख (काम्यति) इच्छा करते हैं तो अत्र नीतिः (अमूलस्य कुतः सुखम् ) विना कारणके सुख कैसे हो सकता है ॥१७॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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