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________________ चतुर्थो लम्बः । खेदको प्राप्त हुवे । अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे ( अन्येषां व्यसने ) दूसरेकी पीड़ामें (स्वस्येव व्यथा) अपने दुःखके समान पीडाका अनुभवन करना ही (तत् कारुण्यं) करुणा है ॥ ६ ॥ प्रत्युज्जीवयितुं श्वानं यत्नेनाप्यथ नाशकत् । परलोकार्थमस्यायं पञ्चमन्त्रमुपादिशत् ॥ ७ ॥ ___अन्वयार्थः-(अथ) इसके अनंतर ( अयं ) यह जीवंधर कुमार (यत्नेन अपि) यत्नसे भी (श्वानं) कुत्तेको (प्रत्युज्जीवयितुं) जिलानेके लिये (न अशकत् ) समर्थ नहीं हुवे किन्तु (अस्य परलोकार्थ) इसके परलोकके सुधारके लिये (पञ्च मन्त्रं) पञ्च नमस्कार मंत्रको (उपादिशत् ) उपदेश देते भये ॥ ७ ॥ न ह्यकालकृतो यत्नो भूयानपि फलप्रदः। निर्वाणपथपान्थानां पाथेयं तद्धि किं परैः॥ ८॥ अन्वयार्थः-(हि) निश्चयसे (अकालकृतः भूयानपि यत्नः) समय निकल जाने पर किया हुआ भी बहुत यत्न (फलप्रदः न) फल देने वाला नहीं है (परैः किं) बहुत कहनेसे क्या (तनिर्वाण पक्षपान्थामां) यह मन्त्र मोक्षके मार्ग पर चलने वाले पथिकोंके लिये (पाथेयं) कलेवा है ॥ ८ ॥ ____अर्थात्-सुख पूर्वक मोक्षको लेजानेवाला यह मन्त्र है।।८॥ यक्षेन्द्रोऽजनि यक्षोऽयमहो मन्त्रस्य शक्तितः । कालायसं हि कल्याणं कल्पते रसयोगतः ॥ ९॥ अन्वयार्थ:--(अहो) आश्चर्य है ? (अयं यक्षः) यह कुत्ता (मन्त्रस्य) मन्त्रके (शक्तितः) प्रभावसे (यक्षेन्द्रः अननि) यक्ष जातिके
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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